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________________ गांधी दर्शन-सिद्धान्त और व्यवहार को मिलाए रहता है, इसलिए आचार्य शंकर का कयन कि सत्यानते मिथुनीकृत्यप्रवर्ततेऽयं लोकव्यवहारः' ही अधिक संगत लगता है, और गांधीदर्शन का सत्य आदर्श मात्र बन कर रह जाता है । अहिंसा :--गाँधीदर्शन का दूसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अहिंसा है। अहिंसा आध्यात्मिक साधन के रूप में योगदर्शन, जैनदर्शन, बौद्धदर्शन एवं स्मृतियों और पुराणों में व्यापक रूप से स्वीकृत है। सामान्यतया अहिंसा का अर्थ होता है किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना या बध न करना। किंतु सूक्ष्म रूा में इसका अर्थ है किसी भी प्राणी को कष्ट पहुँचाने की इच्छा न रखना, अथवा मन, वाणी और कर्म किसी प्रकार से किसी को कष्ट न पहुँचाना। योगदर्शन में यह कहा गया है कि व्यक्तिगत जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठा हो जाने पर उस व्यक्ति के समक्ष प्राणियों का स्वाभाविक वैर भी समाप्त हो जाता है। गांधीदर्शन में अहिंसा के इस आदर्श रूप को स्वीकार करते हुए व्यक्तिगत जीवन से सामाजिक जीवन में इसे प्रतिष्ठित करने पर अधिक बल दिया गया है। इसके पीछे गाँधी दर्शन की यह पूर्व मान्यता है कि मानव स्वाभाविक रूप से अहिंसक है अर्थात् अहिंसा की वृत्ति मानव में स्वतः सिद्ध है, हिंसा की वृत्ति अन्य परिवेशों से उत्पन्न होती है। अतः मानवीय सामाजिक समस्याओं का स्थायी समाधान अहिंसा द्वारा ही संभव है। गाँधी-दर्शन अहिंसा को शस्त्र और ढाल दोनों रूपों में प्रयोग करने की राय देता है और इसे दृढ़ता से स्वीकार करता है कि मानवीय समस्त समस्याओं के समाधानहेतु होने वाले युद्ध, संग्राम, लड़ाई, झगड़े आदि अहिंसा के शस्त्र और ढाल से लड़े जा सकते हैं। महात्मागांधी ने भारतीय स्वतन्त्रता के संग्राम में इस शस्त्र के सफल प्रयोग का समुचित उदाहरण भी उपस्थित किया है। महात्मा गाँधी ने इस बात का बार-बार विरोध किया है कि अहिंसा कापरता या दुर्बलता का प्रतीक है । वे इस बात पर सदा जोर देते हैं कि अहिंसा दुर्बल का नहीं, सबल का शस्त्र है। सिद्धान्त के रूप में अहिंसा मानव जीवन की सुरक्षा, सुख और शांति के लिए आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य है। व्यावहारिक दृष्टि से भी उन समस्त शांतिमय उपायों को अहिंसा के अन्तर्गत रखा जा सकता है जिनका प्रयोग मानवीय समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है और इसके आधार पर यह कहा भी जा सकता है कि छोटे मोटे झगड़े से लेकर विश्व युद्ध तक के निपटारे के १. अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ बैरत्यागः । परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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