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________________ ५५ भारतीय दर्शन में गान्धी की अहिंसा में शौर्य रखना ही वैष्णवता का चिह्न है। राग द्वेष पर जब तक नियन्त्रण नहीं होता तब तक अहिंसा का घोष दौर्बल्य का साधक है। प्रबल पक्ष के विरोध में उसको दण्डित करने के लिये असहयोग करना, यह भी हिंसा का एक प्रकार है जो कि कूट युद्ध विकल्प में गिना जा सकता है। दुर्बलों को अपना कार्य प्रबल कण्टकों के द्वारा साधने के लिए दुर्गलम्भोपाय ( सत्याग्रह ) है। इस पर अंश रखने के हेतु से धर्म से आबद्ध कर रखा है। नहीं तो समाज में इसी रास्ता का उपयोग अनार्यों के द्वारा प्रस्तुत हो कर प्रजा में व्यसन समृद्धि के रूप में परिणत होगा। प्रश्न है कि मर्यादित हिंसा भी स्वरूपतः हिंसा ही है, तो वह भी गय ही है । उसके समाधान में दार्शनिकों का मत यही है कि समाज के मूर्धन्य आर्य जिस कृति की प्रशंसा करते हैं, वह धर्म के अन्तर्गत है। लोक कण्टक व्याघ्र की मृत्यु को सुन कर मारने वाले को निन्दित नहीं करते, अतः कण्टक हनन धर्म है । यमार्याः क्रियमाणं हि शंसन्त्यागमवेदिनः । सधों यं विगर्हन्ति तमधर्म प्रचक्षते ॥ . त्रयी के द्वारा मर्यादित व्यवस्था के लिये समाज में स्थित शृङ्खला को दुष्ट, हनन करने में सचेष्ट होते हैं तो साम आदि चार उपायों के अन्तर्गत दण्ड का विधान है, उसमें उक्त असहयोग है। वह यदि शिष्टों पर प्रयुक्त होता है तो प्रतिलोम कहा जाता है। प्रतिलोम के लिये दार्शनिकों के यहाँ मान्यता नहीं है। इसी दृष्टि से धर्मस्थीय, कण्टक धन आदि प्रकरण सुचिन्तित हैं। __ उपर्युक्त कथन का सारांश यही है कि यदि समाज का सर्वाङ्गीण वर्ग मित्रभाव में हैं तो अहिंसा कही जा सकती है, दार्शनिकमत में वैसा होना अधर्मवातावरण में सम्भव नहीं। किं बहुना अहिंसा के आलम्बन में शौर्य समाप्त हो कर बलहीनता ही दृष्टिगोचर होगी। पर्यन्त में आन्दोलन सफल होगा, यह नहीं कहा जा सकता । कामना के रहते पुनः विरोध का होना परस्पर में अपरिहार्य है। पर पक्ष हिंसा पर उतारू है तो जैसे व्याघ्र बध्य है वैसे ही पर पक्ष भी बध्य है। यदि परपक्ष गुणवान् है तो वह आदरणीय या उचित रीति से पालनीय है । अतः कहना होगा कि मन की असंयतता में अहिंसावाद शौर्य या नाशक हो सकता है। परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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