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________________ सत्य की व्याख्या पर यह स्मरणीय है कि नारं ददातीति नारदः अर्थात् मानवता का दान करने वाला या नृणां नराणां वा भावो नारम् "प्राणभृज्जातिवयो वचनाद् गात्रादिभ्योऽञ् इस पाणिनि सूत्र से नृ अथवा नर शब्द से प्राणभृज्जाति वाचक होने से भाव अर्थ में अञ् प्रत्यय होकर नार शब्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है “मानवता, उसका देने वाला, अर्थात् मानवता की शिक्षा देने वाला। स्वयं भी नारं दयते, रक्षति इस व्युत्पत्ति से मानवता की रक्षा करने वाला, यह भी अर्थ है । परोपकार व्रती ही ही मानवता का रक्षक होता है। देखिये 'अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम, परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् .' अर्थात् अठारहों पुराणों का निष्कर्ष यह है कि-पुण्य की इच्छा हो तो परोपकार कीजिये, पाप की इच्छा हो तो परपीडादीजिये । गो वामी तुलसीदास ने भी यही कहा है - परहित सरिस धर्म नहिं भाई। परपीडा सम नहिं अधमाई।' नारद शब्द का यह भी अर्थ है कि--नारं मानवतां द्यति खण्डयति अर्थात् मानवता का खण्डन करने वाला। इसका तात्पर्य यह है कि मानव जब अपने पूर्ण लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है तब वह (नरो-नारायणो भवेत्) अर्थात् नारायण हो जाता है, उस सिद्धान्त का प्रचार करने से नारद जी में यह भी अर्थ चरितार्थ होता है। मानवता से दानवता की ओर ले जाना यद्यपि मानवता का खण्डन है, तथापि यह अर्थ यहाँ इस लिये नहीं माना है कि वह अन्य अर्थों से विरुद्ध है। प्रकृत में तात्पर्य यह है कि परानुग्रहेच्छा से प्रेरित इस कलियुग में गांधी जी के सत्याचरण पर ध्यान दिया जाय तो अवश्य यह समझ में आ जायेगा कि वे देवर्षि नारद के मार्ग का अनुशीलन करते हुये ईश्वर तत्त्व को सत्य रूप में देखना चाहते थे। समस्त विश्व को सत्याचरण में प्रवृत्त करते थे, साथ ही उसका उपाय सर्वोच्च रूप में प्रवृत्त अहिंसा को बताते थे। उन्होंने मानवता की रक्षा करते हुये सभी को मानवता की शिक्षा दी है। __ आज का मानव सत्य के लक्ष्य से विचलित होता हुआ देखा जा रहा है। वह एक रुपये की वस्तु को १०) दस रुपये में बेचने का प्रयत्न करता है, किसी भी विशिष्ट पद को प्राप्त करके अधिकाधिक उत्कोच (घूस ) द्रव्य लेकर अपना तर्पण करना चाहता है। सर्वत्र मात्स्यन्याय की व्याप्ति देखी जा रही है। सभी का उद्देश्य एक मात्र वैषयिक सुख की प्राप्ति बन गयो है यही तो पाशविक प्रवृत्ति अथवा चार्वाक प्रवृत्ति है। यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ परिसंवाद -३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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