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________________ महात्मागांधी का प्रयोगदर्शन रूप ' अपर सत्य' कहलाता है । धर्म्य, न्याय्य एवं उचित कर्मों का बोध, वचन, आचरण और अनुष्ठान इस 'अपर सत्य' का साकार रूप है । यही 'साधन सत्य' भी कहलाता है । सत्य के अनुसन्धान का अभ्यास तथा तद्विपरीत असत्य से उदासीनता परम आवश्यक है। इस साधनमार्ग में संलग्न साधक सारी विपत्तियों को अपने ऊपर झेलकर सत्य का अनुसन्धान करता है । इस प्रकार साधक अज्ञानवश असत्य मार्ग का आलम्बन करके उससे भी निवृत्त होकर पुनः सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है । क्योंकि सत्य का अन्वेषण ही उसके जीवन का लक्ष्य है । इसलिए अनृत से निवृत्त होकर सत्य का ग्रहण करना उसके लिए अवश्यम्भावी हो जाता है, क्योंकि वह सत्यान्वेषण में प्रवृत्त है । महात्मागांधी सत्य को ही ईश्वर मानते हैं और उसे ही जगत् का मूल स्वीकार करते हैं । जगत् के सारे चिन्तक सत्य के अन्वेषक हैं, अत: इस अंश में उनमें कोई विरोध नहीं है । विरोध तो तब खड़ा होता है, जब को कोई भौतिक अथवा कोई आध्यात्मिक स्वीकार करता है । तरह की सैद्धान्तिक अवस्था तत्त्वान्वेषण कहीं अन्त में आती है ! अथवा इस प्रकार के सिद्धान्त में कहाँ है ? विरोध तभी सम्भव है, जब सत्य की पूर्णता में जितने भी सिद्धान्तवादी हुए हैं, उन्होंने सत्य के विभिन्न ही निर्णय किया है । सम्पूर्ण सत्य का दर्शन आवश्यक है । यही कारण है कि आज तक का एतद्विषक सारा प्रयास निष्फल रहा है । व्यापार की विरोध की सन्देह हो । अंशों का ४१ समाप्ति पर सम्भावना ही आज तक ६ ऐसा लगता है कि सत्य की प्राप्ति के साधनों में ही कुछ त्रुटि रह गई है । उस त्रुटि को दूर करने के लिए तथा सम्पूर्ण सत्य की प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण अहिंसा को ही साधन के रूप में महात्मागांधी ने प्रस्तुत किया। गान्धी जी के विचारों में अहिंसा की पूर्णता व्यक्ति के जीवन में उसके प्रतिष्ठित हो जाने मात्र से सम्पन्न नहीं होती, क्योंकि व्यक्ति की सत्ता समाज की सत्ता से अतिरिक्त नहीं है । इस अहिंसा के मूल में यह निहित है कि साधक स्वयं अपने दोषों का निरीक्षण करे। अपने दोषों का दर्शन और उसके लिए स्वयं ही प्रायश्चित्त करना जिस अहिंसा में निहित है, उस अहिंसा की उपासना पद्धति में साधनावस्था में भी किसी के साथ विरोध सम्भव नहीं है । इसलिए यह एक अविरोधी मार्ग है । Jain Education International इस प्रकार के सत्य किन्तु सत्य को इस सत्य की साकार उपासना व्यवहार में होती है । व्यावहारिक सत्य भी व्यक्ति की मिथ्या धारणाओं से आच्छन्न रहता है । इसलिए सत्य और मिथ्या में परिसंवाद -३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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