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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं गांधीजी कहते हैं कि ऐसे हर वचन को जिसे धर्मशास्त्र का वचन होने का निर्णय किया गया हो, सत्य की निहाई पर दयारूपी हथौड़े से पीटकर देख लेना चाहिए। अगर वह पक्का मालूम हो और टूट न जाय तो ठीक समझना चाहिए, नहीं तो हजारों शास्त्रवादियों के रहते हुए भी नेति नेति कहते रहना चाहिए। शास्त्रवाद के विपरीत श्रद्धा आचारानुरोधी होती है। वह विवादों को समाप्त करते हुए एक मात्र कर्माचरण के माध्यम से मनुष्यों के बीच सम्बन्धों का नव-निर्माण करती है और जीवन का उत्तरोत्तर विकास एवं विस्तार करती है। श्रद्धा में असीम नम्रता होती हैं क्योंकि नम्रता का अर्थ है--समर्पण । समर्पण ही वह मार्ग है जिस पर चल कर व्यक्ति स्व को पर के लिए मिटाता है। समर्पण सभी प्रकार के भेदक तत्त्वों को लांघ कर अनेकता में एकता का भान कराता है।
गांधीजी के अनुसार श्रद्धा से ही यह भी सम्भव है कि एक ओर उससे व्यक्ति स्वातन्त्र्य की रक्षा हो, और दूसरी ओर समष्टि की विशालता का अनुभव हो । गांधीजी कहते हैं कि प्राचीन हिन्दू समाज में श्रद्धा का यह तत्त्व सुविदित था, यही मूल कारण है कि यहां विचार-स्वातन्त्र्य अपनी उच्चता पर पहुंच चुका था। भारतीय सम्प्रदायों और दर्शनों की विविधताओं के अन्दर छिपे हुए इस श्रद्धातत्त्व को गांधीजी ने पहचान कर उसके व्यापक-शक्ति की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया। इस प्रकार गांधीजी की दृष्टि में श्रद्धा, नीति एवं धर्म के अन्वेषण के लिए एक विशिष्ट जीवनविधि है, जो आचार के माध्यम से अग्रसर होती है। गांधीजी अपनी इस श्रद्धा को भक्ति का रूप देते हैं जो उनके भक्ति प्रवण स्वभाव के साथ समरस हुआ। श्रद्धा के दिशा निर्देशक तत्त्व हैं--सत्य और अहिंसा। गांधीजी कहते हैं कि सत्य और अहिंसा की कुंजी से जब मैं धर्म की पेटी खोलता हूं तो मुझे एक धर्म का दूसरे धर्म से एकता पहचानने में जरा सी कठिनाई नहीं आती। गांधीजी कहते हैं जब श्रद्धा, सत्य और अहिंसा को पहचानने लगती है तो उत्तरोत्तर उसमें उत्कर्ष आने लगता है। अन्ततोगत्वा इस प्रकार से उत्कट श्रद्धा धर्म बन जाती है ।
सत्य एवं ईश्वर
अन्य अध्यात्मवादी विचारकों की तरह गांधीजी भी जीवन का एक मात्र ध्येय परमेश्वर का साक्षात्कार मानते हैं। सत्य और परमेश्वर को वे अभिन्न मानते हैं, किन्तु परमेश्वर ही सत्य है इतना मात्र कहना वे पर्याप्त नहीं मानते, प्रत्युत उसके साथ सत्य ही परमेश्वर है, यह कहना भी अनिवार्य समझते हैं। इस व्याख्या को वे निर्गुण परमेश्वर की व्याख्या मानते हैं। उसका सगुण रूप उस सत्य को मानते हैं
परिसंवाद-३
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