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________________ भारतीय चिन्तन को परम्परा में नवीन सम्भावनाएं गांधीजी स्वतन्त्रता के साथ साथ समता और बन्धुता को सामाजिक संगठन का मूल मन्त्र स्वीकार करते थे । बन्धुत्व सामाजिक जीवन का प्राण है । बन्धुत्व विहीन समाज जीवन रहित है, निर्जीव अस्थिपंजर है । बन्धुत्व और समता का गहरा सम्बन्ध है । समता से अनुप्राणित बन्धुत्व ही सच्चा बन्धुत्व है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुये गांधीजी समता, स्वतन्त्रता और बन्धुत्व की कसौटी पर सामाजिक व्यवस्था को परख कर उसमें समुचित परिशोध कर उनके आधार पर समाज का पुनर्गठन करना चाहते थे। उनके विचार में ऊँच-नीच की भावना पर आश्रित जाति व्यवस्था और जन्मजात अस्पृश्यता का विचार इन सिद्धान्तों के विरुद्ध तथा समाज की प्रगति में बाधक तथा जीवन के विकास में बड़ी रुकावट हैं। उनकी धारणा थी कि जन्मजात अस्पृश्यता 'जातिपांति की सबसे निन्दनीय परिणाम है ।' अस्पृश्यता बुद्धि, दया, करुणा तथा प्रेम की प्रवृत्ति के प्रतिकूल है वह मानव जाति के प्रति बड़ा ही भयंकर अपराध है, इसने हिन्दू समाज को पतित और विषाक्त बना डाला है। गांधीजी की धारणा थी कि समाज की सेवा के कारण कोई व्यक्ति पतित और दुःख का भागी नहीं बनाया जा सकता । अतः भंगी, आदि श्रमिकों को उनकी सेवाओं के कारण पतित समझना अनुचित है । १६ तो चाहते थे कि समाज में सभी समाजोपयोगी व्यवसायों को समान आदर प्राप्त हो । हिन्दू धर्म की पवित्रता तथा हिन्दू समाज के विकास के लिए अस्पृश्यता निवारण तथा जाति व्यवस्था का अन्त नितान्त आवश्यक है । पर गांधीजी वर्णधर्म के समर्थक थे । उनका विचार था कि वर्ण जन्म से ही नियत होता है और वह वंश - संस्कार के नियम पर अवलम्बित है । प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीविका के लिए अपना पैतृक व्यवसाय ही अंगीकार करना चाहिए । हां, अवकाश के समय प्रत्येक व्यक्ति दूसरे तरीकों से अपनी क्षमता के अनुसार समाज की सेवा कर सकता है । वर्णधर्म के पुनरुद्धार को कठिन समझते हुए भी गांधी जी उसका पुनरुद्धार कर एक ऐसी वर्णव्यवस्था को प्रतिष्ठित करने के पक्ष में थे जो वरिष्ठता के अहंकार से निर्मुक्त हो, जिसमें सब वर्णों और व्यवसायों को समान पद पर और गौरव प्राप्त हों, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवनोत्कर्ष तथा अपनी नैतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति की समान सुविधाएं प्राप्त हों । सब नागरिकों को सामाजिक और राजनीतिक जीवन में भाग लेने के समान अधिकार हों और विभिन्न वर्णों से सम्बन्धित व्यक्तियों के सामाजिक संसर्ग समता पर आश्रित हों । परिसंवाद - ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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