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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं से साध्य भी अपवित्र हो जाता है । सक्रिय अहिंसा ही सर्वोत्तम सत् साधन है । सत्य की प्रतिष्ठा के साथ साथ अहिंसा का अनुसरण भी मानव का परम धर्म अर्थात् कर्तव्य है | अहिंसा महान् व्रत के साथ साथ अमोघ शक्ति भी है । उसका निष्ठापूर्वक सक्रिय प्रयोग आत्मोत्कर्ष और समाजोत्थान दोनों के लिए वस्कर है। गांधी जी चाहते थे कि सत्यनिष्ठ हिंसा और निष्क्रिय अहिंसा त्याग कर सक्रिय अहिंसा द्वारा दुष्टों का शोधन करें, त्याग और सत्य प्रतिष्ठित करें तथा दमन अत्याचार, शोषण, आधिपत्य और हिंसा पर विजय प्राप्त करें । १४ गांधी जी सांस्कृतिक पुरुष थे । भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी दृढ़ निष्ठा थी । उसका अध्ययन और उसके सजीव तत्त्वों का जीवन में संचार वह प्रत्येक भारतीय का पुनीत कर्तव्य समझते थे । उन्हें पाश्चात्य संस्कृति की भौतिकवादी प्रवृत्ति पसन्द नहीं थी । पाश्चात्य की अन्धाधुन्ध नकल को तो वह बहुत ही गलत समझते थे । पर उनके विचार में भारतीय संस्कृति की पुरानी प्रथाओं का पुनरुज्जीवन तथा उनके आधार पर संस्कृति का विशुद्धीकरण असम्भव और हानिकर है । उनकी धारणा थी कि हमारे पूर्वजों ने संस्कृति की विभिन्न धाराओं का समन्वय करते हुए संस्कृति को विकसित और पुष्ट किया है और हमें भी सम्मिश्रण और समन्वय द्वारा संस्कृति का विकास करना ही चाहिए। वह चाहते थे कि हम पाश्चात्य संस्कृति के साथ साथ संसार की दूसरी संस्कृतियों का भी अध्ययन करें और उनके सजीव जनोपकारी तत्त्वों को ग्रहण कर उन्हें अपनी संस्कृति का अंग बना लें, तथा भारत में प्रचलित विभिन्न सांस्कृतिक धाराओं के समन्वय की और ध्यान दें । भारतीय संस्कृति की एकता की पुष्टि तथा उसके विकास के लिए इन विचारों की काफी सार्थकता है । गांधीजी नैतिकता को धर्म और सत्य दोनों का महत्वपूर्ण अंग तथा जीवनोत्कर्ष का सर्वश्रेष्ठ उपकरण स्वीकार करते थे। सभी धर्म नैतिकता से विभूषित हैं और नैतिक जीवन ही धार्मिक जीवन हो सकता है । सत्यनिष्ठ के लिये नैतिक नियमों का पालन तथा नैतिकोत्कर्ष के लिये प्रयत्न नितान्त आवश्यक है । नैतिकोत्कर्ष के लिये आत्मनियन्त्रण और मानवकल्याण में संलग्नता दोनों ही परम आवश्यक हैं । संयम नैतिक जीवन का सद्गुण तथा उच्छृंखलता उसका घातक है। मानव कल्याण सर्वश्रेष्ठ नैतिक नियम है। मानव कल्याण की अभिवृद्धि ही नैतिकता का लक्ष्य है । सामाजिक कर्तव्यों का पालन तथा निष्काम लोकसेवा जीवन के नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिये आवश्यक है । इन विचारों की सार्थकता ध्रुवसत्य है । । परिसंवाद - ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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