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________________ धर्म ? दर्शन ? विज्ञान ? तीन प्रश्न चिह्नों की अद्यतन नियताप्ति ३०७ जैसे जीवन में नकारात्मकता विप्रतिपन्दमागिता या विनाश का पर्याय हो सकती है, उसी प्रकार दर्शन और धर्म के क्षेत्र में भी उसका उत्पथकारिणी या विध्वंसिनी हो जाना स्वाभाविक है। अतः इन क्षेत्रों में भी सकारात्मकता को स्वीकारना और उसको लेकर चलना ही सार्वजनीन श्रेयस् प्रेयस् के लिए विशेष स्तुत्य है। प्राचीन काल में दर्शन को विधि शास्त्रानुशीलन, चिन्तनमनन, अनुभव, परंपरा संप्राप्ति, तथा स्वोपज्ञता, वैचारिक स्वाविष्कारशीलता या गवेषणा पर विशेष आवृत होती थी। प्रायोगिक विज्ञान प्ररोहावस्था में होने के कारण विशेष योगदान दे पोता था, न उससे आहूत, निमंत्रित था अनायास रूप से सहायता ली जाती थी। काल क्रम से इदानींतन प्रायोगिक विज्ञान भी दर्शन के परिसर में स्वयं या आहूतरूप से आने के लिए उत्सुक और सचेष्ट है। इस संदर्भ में विज्ञान की अन्तिम सीमा-रेखा स्वीकारते हुए भी उसकी विधि, सहायता और प्रेरणा को पूरा महत्त्व देना चाहिए। यह यथार्थ है पहले दर्शन विज्ञान के लिए बेड़ियाँ गढ़ता था। पर अब बुद्धि के उत्खनन, सौवनिर्माण और व्यावहारिकता के प्रक्षालन यह सिद्ध करते आयेंगे कि दोनों सहोदर हैं और रहेंगे। यमज के रूप में उनकी शिक्षादीक्षा का विकास हो तो और भी उत्तम । दोनों को एक दूसरे का पूरक रखने की भावना भी बहुत सही है। ___दर्शन को धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि जीवन मूल्यों के सन्दर्भ में प्रतिबद्धताओं तथा कुण्ठओं से पहले अपने ही पूर्ण रूप से निर्वाण या मोक्ष प्राप्त करना होगा। जीवन मूल्यों का गणितीकरण करना होगा। उसके चलनकलन राशिकलन को भी समझना होगा। उसे विज्ञान पर हावी रहने की अपेक्षा विज्ञान का करावलब प्राप्त करना होगा, सामंजस्य की भावना से शिशुकक्षा की पंक्तियाँ गुनगुनाते हुए कि पुरजे किसी मशीन के, कहने के हों साठ, बिगड़े उनमें एक तो, सबहों बारह बाट । . और सन्तोष की बात है कि उपर्युक्त सतर्कता क्रियाशील भी है। इसमें अर्थशास्त्र तथा उसका स्वावलंबन ( authority ) न्यूनतमापेक्षित (optimum ) भावना का आयात करना होगा। उसकी संप्रेषणीयता पर कड़ी निगाह रखनी होगी। परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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