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________________ ३०४ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावन एं प्रयोजन है। और वह प्रयोजन मात्र विश्लेषण नहीं है। दर्शन का प्रयोजन है दुःख से छुटकारा और सुख की प्राप्ति । स्वतंत्रता, समता, समृद्धि, अहिंसा, शांति जैसे पांच लक्ष्य इसी हेतु से हैं, मात्र अहेतुक नहीं। मुझे यह भी लगता है कि नये दर्शन की सम्भावनाए अन्ततः नये आन्दोलन के साथ प्रगट होती हैं। अगर जीवन को नये ढंग से जीने की जरूरत नहीं महसूस हो तो नया विचार नहीं जनमता, और पुष्ट नहीं होता। वैसे जीवन और दर्शन का दुतरफा सम्बन्ध है। नये-नये आन्दोलनों से नये-नये विचार निकलते हैं, और नयेनये विचारों से नये-नये आन्दोलन जनमते हैं। हाँ, सब विचार दर्शन नहीं बन पाते, और दर्शन की भी अपनी सीमा है। नये दर्शन का उद्भावन करने से हो नया जीवन नहीं बन जाता। शक्ति और युक्ति, संगठन, आन्दोलन, देशकाल, परिस्थिति और संयोग वगैरह मिल कर किसी नये दर्शन के अनुरूप जीवन-क्रम की व्यवस्था करते हैं। इनमें विचार की भूमिका जबर्दस्त है, शायद प्रथम महत्त्व की है, जरूरी है किंतु पर्याप्त नहीं है। नये दर्शन की सम्भावना के लिए पुराने दर्शनों के दबदबे का और उनके शास्त्र और शब्द के प्रामाण्य का ध्वंस जरूरी है। पुराने दर्शन और उनके शास्त्र और शब्द का ध्वंस नहीं होगा। वे संदर्भ के रूप में रहेंगे। मनुष्य की मूल्यवान विरासत के रूप में सुरक्षित रहेंगे। किन्तु उनकी आप्तता नहीं होगी। इस ध्वंस की भूमि पर नये सृजन की इमारत खड़ी की जा सकती है अन्यथा नही । इसमें पुराने ध्वंसावशेष की जमीन, ईट, पत्थर काम में आ सकते हैं लेकिन इनका अभिनिवेश बदला हुआ होगा, सरंजाम, संयोजन नया होगा। यह एक सृजनात्मक ध्वंस का काम है। ध्वंस से सृजन होगा। पुराने बीज की खोल फटने से नया अंकुर निकलेगा। प्रारम्भ में नये दर्शन का उद्भाव ताकिक असंगतियों के बीच होगा। बल्कि इन असंगतियों की खाद पर बड़ेगा। क्योंकि सत्य तर्क ही नहीं है, तर्कातीत भी है। मुझे तर्क और सत्य में चुनना हो तो मैं जो है जो सत् है उसे देखकर तर्क और प्रमाण को उसके मुताबिक लगाना पसन्द करूँगा, न कि तर्क और प्रमाण के मुताबिक सत्य को तोड़ना-मरोड़ना । सत्य का यह अन्वेषण अन्तर-बाह्य दोनों ही स्तरों पर जस-का-तस देखने से होगा और इसे परीक्षण के लिए खुला रखना होगा। हाँ, परीक्षण की विधि, भिन्न-भिन्न हो सकती है। मुझे लगता है कि इस नये जीवन परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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