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________________ नये जीवन दर्शन की कुछ समस्याएं और सम्भावनाएं ३०१ वैचारिक प्रतिबद्धता थी उसमें काफी कटाव हो रहा है। नये आधार अभी भारत में प्रतिष्ठित नहीं हैं और पुराने नष्ट हो रहे हैं, इसलिए यह एक संक्रमण काल है । ये नये विश्वास क्या हैं ? ये नयी संस्थाएं क्या हैं ? इनके रूप इतने स्थिर नहीं है जितने कि प्राचीनों के, इसलिए इनकी पहचान भी उतनी सरल नहीं है । फिर भी पुराने कर्म, कर्मफल और नियति और परलोक के बजाय आज इहलोक के प्रत्यक्ष अर्जन प्राप्ति और पुरुषार्थ का महत्त्व बढ़ा है। इस माने में स्वतन्त्रता ज्यादा मूल्यवान है । ऐसा नहीं है कि कर्म-कर्मफल की व्यवस्था में स्वतन्त्रता नहीं है। प्रश्न सापेक्षिक महत्त्व का है। आज इहलोक के अर्जन और उससे प्राप्त स्वतन्त्रता का जो महत्त्व है वह कर्म, कर्मफल की व्यवस्था और राजतन्त्र और जातितंत्र में नहीं है। इस तरह स्वतन्त्रता के मूल्य बढ़ने के साथ राजा और वर्ण की व्यवस्था भी शिथिल पड़ी है। फिर, समता। सिर्फ अन्तर की नहीं, आमदनी और सम्मान को समता की जैसी भूख आज जगी है वैसी प्राचीन भारतीय चिन्तन और संस्थाओं में नहीं है। कोई गीता या धर्म पद की उस आन्तरिक समता का उद्धरण न दे। वह है, बहुमूल्य है, किन्तु उसके साथ ही ब्यवहार में रीति-रिवाजों और संस्थाओं में आज जो समता की छटपटाहट है, वह पुरानी व्यवस्था में नहीं है। समता को समृद्धि के साथ प्राप्त करने पर भी बल है। वह आन्तरिक समता बहुत करके अपने शरीर को और समृद्धि को छोड़ कर प्राप्त की जा सकती थी । वह आत्यंतिक रूप से शरीर छूटने पर ही प्राप्त हो सकती है या समाधि में शरीर को, प्राण को, जैसे स्थगित करके प्राप्त की जा सकती है। इहलौकिक समता को समृद्धि के साथ प्राप्त करने पर बल है। समृद्धि के जरिए समता, और समता के जरिए समृद्धि, यह आज के मनुष्य की एक समस्या लगती है। __ आज के सब मनुष्य एक जैसे नहीं सोचते या बरतते हैं। न पूरब में, न पश्चिम में । इसलिए यह एक अति सरलीकरण है। फिर भी कुछ चीजों को उभारने के लिए यह जरूरी है वैसे वस्तुओं को और समृद्धि को छोड़ कर भीख मांग कर मानअपमान, ठंढ-गरम, सुख दुख में समता की कोशिश पश्चिम में शायद हमसे ज्यादा हो रही है । इन माने में वे शायद हमसे ज्यादा आध्यात्मिक और ईमानदार हैं। भारत में विचार में तो सोना, और माटी और गौ और सूअर ब्राह्मण और चांडाल समान हैं । व्यवहार में वह नितान्त असमान है। इसलिए मेरी राय में समग्र मनुष्य की दृष्टि से लक्ष्य समता के जरिए समृद्धि और समृद्धि के जरिए समता हो रही है। परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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