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________________ २८६ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं समस्त विज्ञानों को रखा जो अनेक विषयों से सम्बन्ध रखते हैं। इनसे परे अर्थात् मेटाफिजिक्स का प्रयोग उस तत्त्व विज्ञान के लिए किया। उस समय से मेटाफिजिका फिलासफी बन गया। कार्लमार्क्स ने मेटाफिजिक्स का घोर विरोध किया और कहा कि मेटाफिजिक्स के द्वारा वास्तविकता कदापि नहीं जानी जा सकती है। उनका कहना यह है कि अपरिवर्तनशील रूप का कोई तत्त्व नहीं है । अतः तत्त्वज्ञान एक बड़ा भारी भ्रम है। अतः मेटाफिजिक्स शब्द का प्रयोग उन्होंने बहुत ही निषिद्ध माना। इसलिये उन्होंने अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के लिए फिलासफी शब्द का प्रयोग उचित, समीचीन और न्यायसंगत माना। अस्ट्रिया में कुछ चिन्तकों और विचारकों ने एक मण्डल बनाया; जिसका नाम 'वियनासकिल' रखा गया है। उसमें विजगेंस्टाइन प्रमुख थे। उन्होंने टैक्टस नामक एक ग्रन्थ लिखा, जिसमें तार्किकप्रमाणवाद की स्थापना की। इसके विकास में अंग्रेज दार्शनिक तथा गणितज्ञ रसेल ने ( मैथेमेटिकल लाजिक ) गणितीय तर्कशास्त्र जोड़कर प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र का प्रारूप खड़ा किया। प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र तथा ताकिकप्रमाणवाद के आचार्यों का दृष्टिकोण यह है कि दर्शन वास्तविकता का अनुसन्धान नहीं है, क्योंकि यह असम्भव है। किंतु जो कुछ हम कहते हैं उनके शब्दों में अर्थों का विश्लेषण मात्र है। इसके लिये दो प्रकार के चिंतक पृथक्-पृथक चाहिये। एक वे जो प्रयोग तथा निरीक्षण द्वारा नये-नये सत्यों को उद्घाटित करें, दूसरे वे जो कदापि प्रयोग के क्षेत्र में कार्य न करके प्रयोगों द्वारा जो प्रतिष्ठित किया गया है उनकी समालोचना करें। यही दार्शनिक कहलायेंगे। प्रश्न--क्या भारतीय दर्शन दर्शन है ? मानव के ज्ञान विशेष के एक शास्त्र का नाम स्वयंसिद्धवाद है। इसका विषय है-परम अर्थ = अत्यन्त पुरुषार्थ । दूसरा दृष्टिकोण है, वास्तविकता क्या है ? इसका अनुसन्धान । यह दर्शन है जो पूर्व से भिन्न है। विचार से देखा जाय तो ये एक ही सिक्के के दोनों पृष्ठ हैं। एक का अध्ययन दूसरे को अपने भीतर पाता है। मेटाफिजिक्स का प्रयोग उस तत्त्व विज्ञान के लिए किया। उस समय से हमारी वास्तविकता क्या है, इसका जानना अनिवार्य हो जाता है। जब हम वास्तविकता को जानना चाहते हैं तो अत्यन्त पुरुषार्थ उससे भिन्न पाया जाता है। यदि वास्तविक तत्त्व सृष्टिकर्ता है जो अपने को सृष्टि रूप में परिवर्तित या विकसित करता है तो यह भी तो उस वास्तविकता या परमपुरुषतत्त्व का अत्यन्त पुरुषार्थ हो गया। भारतीय दर्शन का निरूपण किसी दर्शन में स्वयंसिद्धवाद अर्थात् परम पुरुषार्थ के अन्वेषण के रूप में किया गया है। परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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