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________________ अध्यात्म और आधुनिक समाज . प्रो. डा. देवस्वरूप मिश्र दर्शन शास्त्र शब्द से यही तात्त्विक अर्थ दार्शनिक विद्वान् तथा अन्य व्यक्ति समझते हैं कि जिसके द्वारा वस्तु का सही स्वरूप प्रतीत हो सके वही दर्शन है। वस्तु दो प्रकार के हैं आत्मा और अनात्मा। साधारणतया अनात्मा का दिन र्शन कराते हुए मुख्यरूप से आत्मनिरूपण करना ही भारतीय दर्शनों का लक्ष्य रहा है। जहां-जहां अनात्मवस्तु का निरूपण आया है उसका भी आत्मज्ञान करने में ही तात्पर्य निहित है। इसलिए वेदान्त शास्त्र में सृष्टि के प्रयोजन की मीमांसा की गई है। क्योंकि जब वेदान्तों का गतिसामान्य न्याय से परमात्मनिरूपण ही प्रयोजन हैं तब क्यों जडात्ममिथ्या प्रपंच के निरूपण का मोघप्रयास किया गया ? यह प्रश्न स्वाभाविक है । कार्य से कारण के ज्ञान में सुविधा होती है अतः कार्यभूत विश्वप्रपंच का निरूपण 'फलवत्सन्निधौ अफलमपि तदङ्ग" न्यायमूलक समुपलब्ध है। न्यायाचार्य दार्शनिक सार्वभौम उदयनाचार्य जी के अनात्मवस्तु का निरूपण भी आत्मज्ञान में सहकारी है। इस तत्त्व का दिग्दर्शन अपने आत्मतत्वविवेक ग्रन्थ में किया है। नैयायिक ईश्वर की सत्ता स्वीकृत करते हुए भी, मोक्षरूप परमपुरुषार्थ का साधन आत्मज्ञान ही मानते हैं । हाँ, यह है ईश्वरोपासना प्रभृति साधन सहकारी। चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त सभी दार्शनिक आत्मा को देह से अतिरिक्त मानते हैं। इसी कारण अनात्म देहादि के साथ आत्म के तादात्म्य को बन्धन एवं उसके निवृत्ति को मोक्ष का स्वरूप माना गया है। श्री उदयनाचार्य जी स्पष्ट निर्देश करते हैं कि "नैसगिकं ज्ञानमज्ञानमेव" । स्वाभाविक अर्थात् बिना विचारविमर्श के के ही उत्पन्न होने वाला 'अहं गौरः, अहं स्थूलः इत्यादि ज्ञानभ्रम हो है। आचार्य जानते थे कि कहीं इसी ज्ञान को आत्मज्ञान न समझ बैठा जाय। इसी कारण से दार्शनिक सार्वभौम श्री वाचस्पति मिश्र ने भामती ग्रन्थ में आत्मा के स्वरूप का निरूपण भलीभांति से पूर्वोत्तर पक्ष द्वारा किया है। अतः सर्वतोभावेन विमर्श के पश्चात् यही सिद्ध होता है कि दर्शन का मुख्य उद्देश्य आत्मा के यथार्थरूप का निरूपण करना ही है। जिससे कि साधक तदनुसार चिन्तन करके अपने जीवन का सुखमय परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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