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________________ भारतीय परम्परा के अनुशीलन से नया दर्शन संभव २६१ ही उसी प्रकार यह भेद भी समाप्त हो गया होता, जिस प्रकार निगम तथा आगम का भेद कर्मकाण्ड एभं ज्ञानकाण्ड का भेद समाप्त हुआ। (५) विभाजक धर्म के रूप में उक्त मान्यता को स्वीकार करने की मात्र परम्परा रही है, जो संस्कृतिभेद एवं विचार भेद की असहिष्णुता से उत्पन्न है। इसका कोई मौलिक आधार नही है। नवीन वर्गीकरण की आवश्यकता-उक्त दोषों को देखते हुए यह आवश्यक प्रतीत होता है कि आग्रहरहित होकर भारतीय दर्शन का वर्गीकरण किया जाय। किन्तु वर्गीकरण को स्पष्ट एवं तार्किक दोष से रहित रखने के लिए कुछ शर्तों को पूरा करना होगा। (१) वर्गों में विभक्त होने वाले भारतीयदर्शन की सीमा का निर्धारण करना होगा। (२) उन अधारभूत विभाजक धर्मों को लेना होगा जो एक ओर मान्यता पर आधारित न हो और दूसरी ओर परस्पराच्छादनता सांकर्य, अतिव्याप्ति, अव्याप्ति विभाग के दोषों के निवारण करने में समर्थ हों। अतः इस सम्बन्ध में केवल कुछ सुझाव उपस्थित किए जा रहे हैं। (१) भाषाभेद के आधार पर; संस्कृत, पालि, प्राकृत, एवं आधुनिक भाषायें । (२) शैली भेद के आधार पर : (क) भाषागत शैली-संवाद, सूत्र, भाष्य, टीका, निबन्ध, प्रबन्ध, आदि । (ख) प्रतिपादन शैली। (१) विश्लेषणात्मक (२) वर्णनात्मक या विवरणात्मक स्वतन्त्रतर्क मूलक शास्त्रानुकूलतर्कमूलक उपदेशात्मक व्याख्यानात्मक (३) आलोचनात्मक, (४) समन्वयात्मक, (५) तुलनात्मक आदि (३) प्रतिपाद्य विषय के स्वरूप के आधार पर। जैसे- क) भौतिकतत्त्ववाद-अतिभौतिकतत्त्ववाद-आध्यात्मिकतत्त्ववाद (ख) एकतत्त्ववाद, उभयतत्त्ववाद, अनेकतत्त्ववाद (ग) प्रत्ययवाद, वस्तुवाद परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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