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________________ ૨૪૬ भारतीय चिंतन परंपरा में नये जीवन-दर्शन की अपेक्षा घोषणा, किन्तु जीवन में दु:ख, दरिद्रता, पराधीनता का साम्राज्य छाया रहा । दर्शन में अहिंसा या मैत्री किंतु जीवन में मात्स्यन्याय की धूम मची रही। इतने असन्तुलन के बावजूद इन दार्शनिक मान्यताओं की व्यवहार में कभी परीक्षा नहीं की गयी। बल्कि यह मान लिया गया कि समत्व' आदि तत्त्व के रूप में परमार्थ है उनकी परीक्षा व्यवहार से नहीं हो सकती क्योंकि वे घटिया हैं, यहां तक कि वे मिथ्या हैं । इस अतार्किक दार्शनिकता ने व्यवहार से परमार्थ की परीक्षा को सदा के लिए बन्द कर दिया । इसकी विकृतियां तब और भी उभड़ कर सामने आयीं, जब इस देश का आधुनिक देशों से सम्पर्क बढ़ता गया । बाहरी सम्पर्क एवं दबावों के कारण यहां के लोग अब समता और स्वतन्त्रता के सार्वजनिक मानवीय मूल्यों से परिचित होने लगे हैं । व्यवहारिक क्षेत्रों में उसे चरितार्थ करने के उद्देश्य से विविध प्रकार के प्रयत्न भी क्रियोन्मुख होंने लगे हैं । अब इन नये जीवन मूल्यों का भारतीय संस्कारगत जीवन के साथ तादात्म्य स्थापित होना चाहिए। किंतु सत्य यह है कि समतावादी, स्वतन्त्रतावादी ये सारी प्रेरणायें बाहर से आयातित मानी जा रही है | यह स्पष्ट है कि व्यावहारिक समत्व के पीछे जो वर्णन है, वह न तो भारतीय है और न तो भारतीय अन्तश्चेतना ने इसे आत्मीय स्वीकार किया है । इस स्थिति में भारतीय जनता एक ऐसे मन को ढो रही है जो दो निरोधी भागों में बँटकर स्वयं द्वन्द्व पीडित है । मन की आधुनिकता अपरिचित है और उपर से अपरिचित का दबाव है, यदि अभ्यासानुसार खुलकर उसका मूल्यांकन किया जाय, तो वह माया है, मिथ्या है। मन की पुरातनता उसकी अपनी है, वह आज के व्यवहार में यद्यपि अक्षम है किन्तु सत्य है और पवित्र है । इस द्वन्द्व को देश भोग रहा है । फलतः प्रतिक्रिया में अपने प्रति और अपने धर्म और दर्शन के प्रति वह संदिग्ध होता रहा है । यह अपेक्षा की जाती है कि इस बढ़ते हुए संदेह का और आत्महीनता का निवारण भारतीय दर्शन से हो। किसी दर्शन के लिये अनिवार्य शर्त यह है कि उसके बारे में संदेह को स्थान न मिले। दर्शन को एक ऐसा व्यापक तथ्य प्रकट करना चाहिए, जिसके आधार पर वह अन्य की सहायता के बिना बुद्धि और जीवन के विरोधों को दूर करता जाय । वास्तव में भारतीय दर्शन अपने अन्तर्द्वन्द्वों में फंस चुका है । एक प्रकार से अक्षम जैसा हो चुका है। एक ओर जो दुःख ध्वंस का आश्वासन दे, दूसरी ओर वह समाज में व्याप्त दुःखों से उदासीन हो जाय । एक ओर समता का आदर्श के रूप में घोषणा करे, दूसरी ओर सब परिसंवाद - ३ ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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