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________________ २४६ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं का आना-जाना सम्भव हो सके ? यदि उत्तर की सम्भावना करे तो यह कहना अधिक सुरक्षित है कि दर्शन का क्षेत्र मन और उसके अतीत दोनों ही हैं और दोनों के बीच सम्बन्ध है । यह उत्तर परम्परा और आधुनिकता दोनों से बहुत दूर नहीं है । किन्तु इतना कह देने मात्र से कथा समाप्त नहीं होती। क्योंकि तत्काल दूसरा प्रश्न उठ खड़ा होगा कि जो कुछ अध्यात्म है, उसकी व्यावहारिकजीवन के धरातल पर परीक्षा हो सकती है अथवा नहीं ? यदि परमार्थ और व्यवहार के स्वभावगत विरोध के कारण अध्यात्म के व्यवहार से परीक्षा नहीं हो सकती, तो ऐसी स्थिति में अध्यात्म की प्रामाणिकता संदिग्ध क्यों न समझी जायेगी ? इस अवस्था में भारतीयदर्शनों पर की जाने वाली यह आशंका क्यों न पुष्ट समझी जायेगी कि इनके आध्यात्मिक उत्कर्ष की अनिवार्य परिणति है -- जीवन की समस्याओं से दर्शन को दूर रखना । कहीं ऐसा तो नहीं है कि दर्शन का जो प्रधान लक्ष्य जीवन है, उसकी ओर पीठ कर वह दौड़ता जा रहा है और उत्तरोत्तर लक्ष्य से दूरी बढ़ती जा रही है । रुककर इस पर विचार करने के लिये हमें व्यवहार-भूमि पर खड़ा होना होगा । यदि अध्यात्म की सत्यता के लिये व्यवहार प्रमाण नहीं है तो उसकी स्वयंभू सत्यता का अथवा काल्पनिकता का रहस्यात्मकता से अधिक अर्थ नहीं रह जायेगा । अध्यात्मिकता व्यवहार में मानवमूल्यों के रूप में ही प्रतिष्ठित हो सकती है, जिसका माध्यम है धर्म, नीति, संस्कृति, कला और साहित्य । इस स्थिति में वे आध्यात्मिक मूल्य जो प्रायः सभी भारतीय दर्शनों की समान प्रसूति हैं, उनका सफल प्रयोग व्यवहार में होना ही चाहिये । जितने अंश में दर्शन का व्यावहारिक प्रयोग के क्षेत्र में सफलना मिलेगी, उतने ही अंश में उसकी प्रयोजनवत्ता और यथार्थता भी सिद्ध होगी, इस प्रकार दर्शन की प्रामाणिकता की एक प्रमुख कसौटी होगी व्यक्ति ओर समाज का व्यवहार । तथा प्रयोग का अर्थ होगा व्यवहार का निरीक्षण और उसके आधार पर तथ्यों का सामान्यीकरण । प्रयोग की इस प्रक्रिया से भारतीय दर्शनों के समक्ष चिन्तन के नये आयाम और नये प्रमाण प्रस्तुत हो सकेंगे। इन सारी बातों के लिये भी भारतीयदर्शनों का द्वार सदा के लिये बन्द नहीं है । ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद तथा प्रज्ञा और करुणा के अभेद का सिद्धात्त तथा बोधिसत्त्व एवं स्थितप्रज्ञ के जीवनचर्या में इसका बीज खोजा जा सकता 1 दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टि पाश्चात्यदार्शनिकों ने अध्यात्म के भावसूक्ष्म जगत् से चलकर भौतिक विज्ञान का सहारा लिया है । यह अवसर भारतीय दर्शन को नहीं मिला, जो एक तरह की कमी है, किन्तु दूसरी ओर से उसका लाभ भी है । तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और मानव परिसंवाद - ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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