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________________ पौर्वात्य तथा पाश्चात्य चिन्तनधाराओं के समन्वय से नयादर्शन संभव २४१ ऐसी अवस्था में पहुँचना है जहाँ न जरा हो, न मरण हो। इस चिंतनधारा का परिणाम यह होता है कि यह सृष्टि पागल का प्रलाप सिद्ध हो जाती है। एक क्रूर उपहास बन जाती है। केवल एक ही भारतीय चिन्तक ऐसे हुए हैं जिन्होंने इस चिंतन प्रवृत्ति का विरोध किया था। वे हैं श्रीअरविन्द घोष । उनमें पूर्वात्य और पाश्चात्य दोनों चितन धाराओं का अनुपम समन्वय हुआ। वह जगत को हेय नहीं समझते। वह इसे प्रकृति की प्रयोगशाला मानते हैं, जिसमें क्रमशः प्रयोग चल रहा है। इसमें पहले केवल तमस का विकास हुआ। जगत तमस से आवृत रहा। धीरे-धीरे प्राण का विकास हुआ । उसके बाद मन का विकास हुआ। आज का मानव उसी मन का एक विकसित प्राणी है । उनके अनुसार मन के भी कई स्तर हैं। निम्नतरमन, उच्चतरमन, अन्तः प्रज्ञा, अतिमानस । यह सब मन के स्तर हैं। मानव में अभी तक अधिक से अधिक उच्चतरमन का विकास हुआ है। कुछ थोड़े से ऋषियों, मनीषियो में अन्तः प्रज्ञा और अतिमानस के विकास का पता चलता है। इस जगत में क्रमशः मानव में अन्तः प्रज्ञा और अतिमानस का जब विकास होगा, तब मानव में एक विशेष जीवन का प्रादुर्भाव होगा। इसके अतिरिक्त जब धरा पर अतिमानस का अवतार होगा, तब मानव को अपने जीवन पर पूर्ण अधिकार होगा और वह सब दुःखो से छुटकारा पा जायेगा। उनके अनुसार सृष्टि निरुद्देश्य नहीं है वह अपने हृदय में एक विशेष आपूर्ति को लिए हुए आगे बढ़ रही है। प्राचीन नैराश्यवाद, दुःखवाद और फ्लायनवाद के स्थान में उन्होंने आशावाद, आनन्दवाद और जीवन की उपादेयता का प्रतिपादन किया। भारतीय दर्शन में एक कमी यह भी रही है कि उसने व्यक्ति को केन्द्र माना है समाज को परिगणित नहीं किया। पाश्चात्यदर्शन समाज को विशेष महत्त्व देता है और उस समाज के पोषण से ही व्यक्ति की समर्थता का प्रतिपादन करता है। अतः पाश्चात्य दर्शन से हम यह भी लाभ उठा सकते हैं कि समष्टि उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी व्यष्टि। समाज का विकास और उत्कर्ष उतना ही आवश्यक है जितना व्यक्ति का। मैं समझता हूँ कि जैसा की श्री अरविन्द ने हमारी चितन धारा को एक नया मोड़ दिया है जिसमें समाज और व्यक्ति दोनों पर समान रूप से बल दिया गया है। यदि हमारा दर्शन शास्त्र उस प्रवृत्ति को अपनाये और केवल संसार से छुटकारा पाने का ध्यान न रख कर संसार में रहते हुए अपना और समाज दोनों का किसी प्रकार से परिसंवाद-३ ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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