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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं प्रो० महाप्रभुलाल गोस्वामी ने कहा- मानव कर्त्तव्य निर्देश से भिन्न धर्म क्या है ? ज्ञान के लिए दर्शन, श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन आवश्यक है । यह ही दुःख निवृत्ति का मार्ग है । यह बुद्धि का भी उद्देश्य है । २२४ श्री नरेन्द्रनाथ पाण्डेय ने कहा--ज्ञान दो प्रकार का होता है ( १ ) परोक्षात्मक तथा ( २ ) अपरोक्षात्मक । साक्षात्कारात्मक ज्ञान संप्रदाय गत् मार्ग पर चलने पर मिलता है । इस प्रकार आचारपालन धर्म है तथा तत्त्वाधिगम दर्शन । प्रो० रामशंकर त्रिपाठी ने कहा- सत्यान्वेषण के लिए परम्परागत मार्ग से बंधना उचित नहीं है । स्वतन्त्ररूप से सत्य का अन्वेषण किया जाना चाहिए । श्री श्यामनारायणदीक्षित ( वेदान्त विभाग सं० सं०वि० वि० ) ने कहामनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वह समाज के नियमों का पालन करता हुआ ही चल सकता है। इसीलिए आगमानुसार ही ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए । परम्परावद्ध क्रियानुष्ठान ही धर्म है । श्रीसुधाकर दीक्षित ने कहा -- धर्म विश्वास पर आधारित है दर्शन साक्षात्कार पर । यागादिधर्म को मीमांसक स्वीकार करते हैं इनकी फलाधायकता अधिकतर है इनसे उत्पन्न अदृष्ट को नैयायिक धर्म मानते हैं । श्रीविश्वनाथशास्त्री दातार ने कहा -- यज्ञादि कर्म का पर्यवसान शुचिता में है । राग, द्वेष, विरहित होने पर शुचित्व वृत्ति उदित होती है । कभी-कभी साधनों का प्रयोग वीभत्स भाव की उत्पत्ति में भी किया जाता है। इस वीभत्स से मन में जुगुप्सा की मनोवृत्ति पैदा होती है । फलतः व्यक्तित्व शुचिता की ओर बढ़ता है । इस प्रकार धर्म का तात्पर्य अशुचिता से निवृत्ति कराकर शुभ की ओर प्रवृत्त कराना है । यही धर्म करता है और दर्शन भी इसी ओर उन्मुख होता है । फलत धर्मं दर्शन का भेद नहीं ऐक्य ही है । दर्शनों का वर्गीकरण भारतीय दर्शनों का नवीन वर्गीकरण किया जा सकता है या नहीं ? इस विषय की प्रस्थापना करते हुए प्रो० जगन्नाथ उपाध्याय ने कहा पं० रघुनाथ शर्मा ने अपने निबन्ध में कहा है कि नवीन वर्गीकरण की आवश्यकता नहीं है। हमारे दर्शनों के पूर्व वर्गीकरण पूर्ण एवं अन्तिम रूप से है । पं० बदरीनाथ शुक्ल ने कहा है कि नये प्रस्तावित वर्गीकरण में बहुत से विषयों के छूटने की सम्भावना । समानता के परिसंवाद - ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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