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________________ २२० भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं योगदान है इस पर विचार किया जाना चाहिए। पुनः अन्य प्रश्नो पर चर्चा प्रारम्भ की जाय । भागलपुर विश्वविद्यालय के उपाचार्य डा० सी० एन० मिश्र ने संवाद प्रारम्भ करते हुए कहा कि वेदों तथा उपनिषदों में धर्म को ऋत एवं सत्य के रूप में स्थापित किया गया है। मनु ने धर्म को धृतिःक्षमादमोऽस्तेयं' के रूप में प्रतिपादित किया है । इन आदर्शमय नीति वचनों में धर्म भी संगृहीत है। इनका साक्षात्कार हम बुद्धि के द्वारा करते हैं। यह बुद्धि तर्क में उलझी हुई नहीं, वरन् अन्तःप्रज्ञा रूप होगी। इसका दर्शन से सम्बन्ध बनता है। काण्ट ने भी इस अन्तःप्रज्ञा के द्वारा नैतिक धर्मों की उपलब्धि का स्वरूप बताया है। इतिहास दर्शन के आधार पर यह सिद्ध होता है कि प्रायः सभी सत्यचितका संसार में एक ही समय आविर्भूत हुए। पुनः उन्हीं के आधार पर विभिन्न व्याख्याएँ करके नया दर्शन बनाया जाता रहा। यह तत्त्वचिंतन वेद से लेकर बुद्ध, महावीर तक होता रहा और उसके बाद का भारतीय दार्शनिक चिंतन व्याख्या मात्र है। इसी प्रकार पाश्चात्य दर्शन में भी हुआ है। पूर्णरूप से धर्म से दर्शन को निरपेक्ष करने पर यह भारतीय दर्शन की विचार सारिणी से पृथक जैसा हो जायेगा। इस प्रकार धर्म का दर्शन से अलगावपरक चिंतन पाश्चात्य के प्रभाव से ही सम्भव होगा। दूसरी वात यह है कि भारतीय दर्शन का सम्बन्ध आगम के साथ रहा है। वह अनुभव संसिद्ध तत्त्व का तर्क के आधार पर अनुगमन करता है। कहाँ भी है'श्रुत्यनुगृहीत एव हया तर्कोऽनुभवाङ्गत्वेनाश्रीयते' पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि केवल श्रुति पर ही आश्रित रहकर भारतीय दर्शन अनुगमन करता है। काण्ट ने तर्क की अप्रतिष्ठा स्वीकार की है तथा शंकराचार्य ने भी कहा कि यह अप्रतिष्ठा तर्क पर ही आश्रित है। न केवल वेदान्त में अपितु शून्यवाद में भी यह बात देखी जाती है। 'तर्काः अप्रतिष्ठिताः भवन्ति, उत्प्रेक्षाया निरंकुशत्वात् ।' इस प्रकार देखा जाता है कि जहाँ तर्क थक कर अपनी अक्षमता स्वीकार कर लेता है। वहाँ अन्तःप्रज्ञा के बल पर सत्य की व्याख्या करता है। इस सत्य का साक्षात्कार करने पर भी आगमगम्य साक्ष्य के साथ सामञ्जस्य स्थापित करना पड़ता है। इस प्रकार यह प्रक्रिया आगम का अन्धानुगमन वाली नहीं प्रत्युत् युक्ति प्रधान है। डा० देवस्वरूप मिश्र ( वेदान्तविभागाध्यक्ष सं० सं० वि० वि०) ने दर्शन से धर्म का सम्बन्ध बताते हुए कहा कि 'धृतिः क्षमावमोऽस्तेयं' आदि धर्म के लक्षण परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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