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________________ २०६ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाए हमारे विचार में हो सकता है ? इस जगत का अस्तित्व हमारे चिन्तन में ही है ? अथवा चिन्तन से परे भी इसका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व है ? इन प्रश्नों के उत्तरों के साथ ही समस्त देशों में आध्यात्मिक और भौतिकवादी विचार धारा का विकास हुआ। भारतीय दर्शन को समझने की बात जहाँ उठेगी, वहीं हमारा ध्यान चिन्तन को प्रारम्भिक विन्दु की ओर आकर्षित होगा, और सही मानने में तभी हम निष्पक्ष रूप से इसके विकास के स्वरूप को समझ सकेंगे। "भारतीयदर्शन आत्मा का विज्ञान है"१ वृछ विद्वान् कहते हैं। किन्तु यह कहने से पूर्व हमें सावधानी पूर्वक यथासम्भव सम्बन्धित तथ्यों को एकत्र करने के साथ ही निष्पक्ष एवं पूर्वाग्रहों से विलग और तटस्थ रहना होगा। हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि विषय की उपरथापना में हमारी धार्मिक एवं पारम्परिक मान्यताएं तो नहीं प्रवेश कर रही हैं ? वस्तुतः अपने वास्तविक स्वरूप को छोड़ा नहीं जा सकता, किन्तु विषयगत प्रयत्न निष्पक्ष होना चाहिए और तटस्थ निष्पक्षता के अभाव में यह कहने का कारण हो सकता है कि- "भारतीय दर्शनों का कार्य अपनीअपनी धार्मिक मान्यताओं एवं विश्वासों की पुष्टि करना है। इसलिए यहाँ के दर्शन एक प्रकार के धार्मिक चिन्तन ही है"। फ्रांसिस बेकन ( Francis Bacon ) ने दर्शनशास्त्र के समीक्षात्मक चिन्तन को अन्धविश्वासों एवं व्यक्तिगत रुचियों को व्यक्तिगत सिद्धान्तों से बचा रहना चाहिए, कहा। इन्होंने आगे कहा है कि 'आलस्य के कारण भाग्य मानकर सन्तोष करना, सुन्दरता की दृष्टि से स्वर्ग अमृत आदि की कल्पना कर, मन को बहलाना आदि दार्शनिक का कार्य नहीं है। किन्तु बेकन का यह दृष्टिकोण अनुभवहीन तथा तथ्यहीन प्रतीत होता है। यह तो स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन ब्रह्म की एकात्मकता को किसी न किसी रूप में स्वीकार करता है और विश्वास की पुष्टि आनुभविक तथ्यों की परिपुष्टता के आधार पर करता है। ऋग्वेद के ऋषि एक ओर इन्द्रत्व, वरुणत्व की कल्पना करते हैं, वहीं दूसरी ओर उसी पर सन्देह करते हैं कि उसे किसने देखा है। किन्तु अन्ततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इन्द्र, वरुण, सोमादिदेव अलग-अलग नहीं, अपितु एक १. नारायण राव, इन्ट्रोडेक्शन टू वेदान्त पृ० ३३ २. यूरोपीय दर्शन पृष्ठ ३२ ३. ऋग्वेद ८।१००।३ परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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