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________________ २०४ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं से सम्बन्ध हैं। राजनीतिशास्त्र ने संन्यास की उपयोगिता को ध्यान में रख कर ही संन्यास पर बल दिया है। विशेष विवेचन राजनीति के 'क्रोड पत्र' में द्रष्टव्य है। . भारतीय दर्शन में चिन्तन का संबंध स्नेह के साथ इस प्रकार है। वही शासन भारतीय नित्यानुगामी सफल माना जाता है जिसमें शासक अपने प्रति देशवासियों का सम्बन्ध स्नेहमय' बना सके। स्नेह ही जीवन का प्राण है जो शुचि उज्ज्वल श्रृंगार रस का प्रतीक है। साहित्यशास्त्र में प्रेम का व्यभिचारी भाव चपलता मानी गयी है जिसका उदय राग द्वेष में होता है। उसका परिणाम अविमृश्यकारिता, ताड़न, बन्धन या वध कहा गया है जो वैर का कारण है। अतः आत्मत्राण के लिए रागद्वेष से विमुक्ति उपादेय है। बिना दर्शन के यथार्थ चिंतन नहों और बिना यथार्थ तर्क युक्त विचार के रागद्वेष विमुक्ति सम्भव नहीं है। इस रीति से निर्वाण को जीवन का आदर्श न मानना नीतिसंगत नहीं है। यद्यपि विविदिषा में धर्म के अंगत्व का सिद्धान्त दर्शन सिद्धान्त को मान्य है, फिर भी नीतिसिद्धान्त की दृष्टि इससे पृथक् है अर्थात् संपूर्ण विद्या एवं तत्प्रकाशित धर्म राजधर्म की स्थापना में अंगभूत हैं, इस सिद्धान्त के पोषण में भारतीय दर्शन जिस प्रकार वर्गीकृत हैं, वह ऊपर कहा गया है। (८) प्रश्न--भारतीय दर्शनों का नया वर्गीकरण करके उसमें बौद्ध, जैन आदि का संग्रहण करने में क्या बाधा है ? उत्तर-वेदप्रमाण सापेक्षता व निरपेक्षता, वर्णाश्रमधर्म की मान्यता व अमान्यता, पारमार्थिक सत्य की व्यावहारिक सत्य पर स्वीकृति-अस्वीकृति, शून्यवाद एवं सत्-वाद, वेदाधीन शुचिता एवं प्रमाण निरपेक्ष अशुचिता तथा पूर्वपक्ष एवं उत्तरपक्ष के भेद जहाँ तक जागरूक हैं वहाँ तक वर्गीकरण के नाम पर किसी के भी मत को अन्धेरे में रखना भावी पीढ़ी के साथ प्रतारणा करना होगा। उक्त मतों को वर्गीकरण से पृथक् रखना ही है और यदि वर्गीकरण में उनको स्थान देना ही है तो पारस्परिक सहयोग देते हुए अपने-अपने स्थान में उनके तथाकथित पार्थक्य को सर्वत्र प्रत्यभिज्ञात कराते हुए यथास्थान रखने में ही प्रतारणा का अभाव सिद्ध होगा। अन्यथा भविष्य में सन्मत्रो, यथार्थवादिता, क्षीर-नीरविवेकिता को खोकर वर्तमान विद्वान अविश्वास के पात्र होंगे। परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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