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________________ २०२ भारतीय चिन्तनकी परम्परा में नवीन सम्भावनाएं करना चाहते हैं उनके मोहार्थ ही उनको नास्तिक्य की ओर प्रवृत्त कराते हैं, उन मताचार्यों की इस उपकृति के लिए मनीषियों ने उनको प्रणाम किया है- " नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।' इस प्रकार सभी दर्शनों का समन्वय इष्ट है तो सभी वादों से प्रार्थना है कि वे अपने पक्ष के समर्थन में वर्णाश्रम की उपेक्षा से वेदों का विरोध करना छोड़ दें । अन्यथा प्रमाण सापेक्ष और प्रमाण निरपेक्ष का समन्वय करना दुःसाध्य है । (४) प्रश्न - धर्म निरपेक्ष दार्शनिक चिन्तन का कोई वर्ग क्या बन सकता है ? धार्मिक चिन्तन की धारा में स्वतन्त्र दार्शनिक चिंतन सम्भव नहीं है और न दार्शनिक दृष्टिकोण से उनका वर्गीकरण किया जा सकता है, इस मत का औचित्य कहाँ तक है ? उत्तर- धर्मनिरपेक्षता में आत्मचिंतन का लाभ क्या होगा ? जब कि शमदमादि संपत्ति एवं वैराग्य के अभाव में मिथ्याभाषण, प्रतारणा आदि से निवृत्त करनेवाला नियामक धर्म का शासन नहीं रहेगा। इसकी उपपत्ति इस प्रकार है - किंचित् विषय विषयक घृणा है तो वीभत्स है । विषय मात्र में घृणा है तो शम है । अतः वीभत्स के बाद ही राम की सिद्धि मानी गयी है । धर्मसापेक्षता में उद्मरोत्तर जुगुप्सा को प्रोत्साहन है । धर्म निरपेक्षता में जुगुप्सा की न्यूनता है जिसमें विलास, अनाचार, व्यभिचार को प्रोत्साहन मिलेगा । अतः वर्णाश्रम धर्माचरण में आरम्भ में धर्मसापेक्षता पर ही भारतीय मनीषियों ने बल दिया है । विषयों में घृणा का पूर्ण उदय होने पर ही ही कर्म का संन्यास है और तत्पश्चात् दर्शन चिंतन में आनन्द तथा कृतार्थता है । सीमितार्थ में मान कर कोई महत्त्व नहीं है । धर्मनिरपेक्ष स्वतंत्र चिंतन का अर्थ है प्रमाण निरपेक्षता को अपनाना । वेदों की प्रमाणता इसलिए मान्य है कि ब्रह्म के यथार्थ निरूपण का सामर्थ्य प्रमाणान्तर में नहीं है । ध्यातव्य है कि वेदों के प्रमाण को स्थलान्तरों में उसकी उपेक्षा करने में स्वतन्त्र दर्शन को शंकराचार्यजी ने भी अध्याहार न करते हुए उपनिषद् के पूर्वापर वचन से ही ब्रह्म को सत् - चित् आनन्द माना है, और कहा है "औपनिषदं पुरुषं पृच्छामि ।” वेद की प्रामाणिकता में भ्रम रहते या निर्दोषिता का भाव न रखते हुए अंश विशेष में मानना उपनिषद् को अप्रमाण ठहराना है । सर्वांश में उपनिषद् संहितादि यथोचित प्रमाण हैं तो विभिन्न पंथों का समन्वय उपासना भेद को स्वीकार करने पर ही सम्भव है जिसका विवेचन ऊपर हो चुका है । परिसंवाद - ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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