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________________ भारतीय समन्वय दिग्दर्शन १९७ ५--यह मनन को मुख्यतम स्थान देने वाला भारतीय दर्शन मात्र श्रुति की अपेक्षा नहीं रखता, वरन् युक्तियों के आधार पर श्रुत अर्थ के निदिध्यासन की प्रेरणा प्रदान करता है। अतः यह प्रसिद्धि है कि "मानाधीना मेयसिद्धिः" अर्थात् प्रमाण की प्राधनता मानी गयी है। इसलिए युक्ति का मुख्यतम स्थान भारतीय दर्शन की अनन्य साधारण सम्पत्ति है। अतः युक्ति सापेक्षदर्शन है मात्र वस्तु या सापेक्ष नहीं। ६.-षष्ठ प्रश्न के ऊहापोह करने पर यह तो मानने के लिए वाध्य होना पड़ता है कि भारतीय दर्शन एक ऐसे चिर शाश्वत सत्य' को लेकर चलता है जिसके साथ समन्वित होना ज्ञानियों के लिए अपरिहार्य सा हो जाता है। किन्तु साधन के भेद का प्रौढ़ प्राज्य प्रताप इस दार्शनिक चिन्तन धारा में प्रतिष्ठित न रहता तो आज दर्शन के असंख्य चिन्तन धारा का स्रोत उपलब्ध न होता और सभी को समान मान्यता नहीं मिलती। वस्तुतः भारतीय दर्शन की यह विशेषता है कि नवीनता की जो मनन की भित्ति पर समर्थित है उसे उचित स्थान प्राप्त होता है। और आज भी यह दार्शनिक शिक्षा समाज और आचार के प्ररिप्रेक्ष्य में अक्षुण्ण नवीन धाराओं में प्रवहमान है, यथा गान्धी, अरविन्द आदि । ७-सप्तम प्रश्न के उत्तर में मैं इतना ही कहना उचित समझूगा कि एकान्त दृष्टि एवं एकान्त रूप से अन्य व्यक्तियों का इस दर्शन के उपर आरोप ही मुझे इस दिशा की ओर भ्रान्त रूप से बढ़ने के लिए बाध्य कर रहा है। वस्तुतः निर्वाण ही एक मात्र भारतीय दर्शन का प्रतिपाद्य विषय नहीं है यथा न्यायभाष्य में वात्स्यायन ने कहा है-तदिदं तत्त्वज्ञाननिःश्रेयसाधिगमश्च यथाविधं वेदितव्यम् । त्रयी, वार्ता, दण्डनीति और आन्वीक्षिकी ये चार विद्यायें हैं। सभी के भिन्न भिन्न तत्त्वज्ञान और निःश्रेयस हैं और उनमें भेद भी है। त्रयी का फल स्वर्ग प्राप्ति और ज्ञान है स्वर्ग आत्म साक्षात्कार फल है। अग्निहोत्रादि साधन समूह एवं ज्ञान तत्त्वज्ञान है। कर्म शास्त्र का भूजलादि का परिज्ञान तत्त्वज्ञान है। शस्य तृण इंधन की प्राप्ति नि:श्रेयस है । नीति में साम, दाम, दण्ड, विभेद चार उपायों का यथा समय विनियोग तत्त्वज्ञान है। पृथ्वी नय और प्रजा का अनुरूप साधन निःश्रेयस है। आत्म-विद्या का आत्मज्ञान तत्त्वज्ञान और अभ्युदय एवं निःश्रेयस प्रयोग है। इसीलिए ये विद्याएं परस्पर भिन्न है । अन्यथा सभी विद्याएं त्रयी में ही अन्तर्भूत हो जाती। अतः भारतीय दर्शन चिन्ता मात्र निर्वाण प्रयोजनपरक नहीं है। वरन् जीवन के समग्र सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक सभी समस्याओं का सम्यक् दर्शन है, अतः इसे पलायनवादी नहीं कहा जा सकता। परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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