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________________ भारतीय समन्वय दिग्दर्शन १९३ सभी एक अर्थात् सदाधार स्वरूप रहता है। "न पश्यतीत्याहुरेको भवति" इस श्रुति के आधार पर निषिध्यमान वस्तु का उल्लेखपूर्वक उसका प्रतिपादन अभीष्ट है। एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म, नेह नानास्ति आदि श्रुतियाँ अनेक का, द्वैत का निषेध करती हैं, किन्तु निषेध नुख से तत्त्व का प्रतिपादन सद्रूपता का अभाव के अधिकरण के रूप में ही प्रतिपादन है, अतः शून्यवादियों के द्वारा निषेध मुख से तत्त्व के प्रतिपादन से विरत होकर न द्वैतं नापि चाद्वैतम्' आदि श्रुतियों के द्वारा तत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। इतना ही नहीं यद्यते न तोषोऽस्ति मुक्त एवासि सर्वदा स्थिरमतिः पुरुषः पुनरीक्षते व्यपगतद्वितयं परमं पदम' ( संक्षेप शारी. २-८६ )। यह दर्शन जगत् की वह अवस्था है, जहाँ जीव के अविद्या संस्कार भी अभिभूत हो जाते हैं। फलतः आत्मविषयक सविकल्पक ज्ञान की उत्पत्ति का अवसर ही नहीं रहता है। निर्विकल्पक आत्मविषयक ज्ञान के उदय की यही अवस्था है। दूसरे शब्दों में मोक्ष नगर में प्रवेश के द्वार पर अवस्थिति है। ज्ञानवान् आत्मा के रूप में स्वीकार करने वाले न्याय दर्शन का यहीं उपसंहार होता है। इतना ही नहीं तत्त्वज्ञान की स्थिति के कारण चरम वेदान्त भी यहां उपसंहृत होते हैं। इस अवस्था का प्रतिपादन आचार्य वात्स्यायन ने-निष्काम आप्तकाम आत्मकामः स ब्राँव सन ब्रह्माप्येति न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति अत्रैव समवलीयन्ते' इन शब्दों में कहा है। (वात्स्यायन भा० ४।११५९) नव्यनैयायिक रघुनाथशिरोमणि ने शुद्धस्वप्रकाश चित्स्वरूपब्रह्मप्रतिपादकवेदान्तानामुपसंहारः वेद्यान्तरविरहात् । इस प्रकार स्वयं ज्योतिः स्वरूप का प्रतिपादन ही दर्शन का अभीष्ट है, जो वेद के उष:काल से एक रूप में प्रतिपादित हो रहा है। मनुष्य भूमि से आसुरी भूमि अर्थात् देहेन्द्रिय में ममबुद्धिमूलक प्रेरणा स्वाभाविक है। दार्शनिक चिन्तन, श्रवण एवं मनन के आधार पर दैवी प्रकृति की प्रेरणा भी उससे भी अधिक सहज एवं स्वाभाविक है। इस दैवी प्रकृति की प्रेरणा के साथ जीव की चेष्टा का सम्प्रेषण होने पर ही मणिकाञ्चन योग होता है। और यह आत्मजीवन की उत्तीर्णता की भूमि पर विश्वजन के जीवन के निस्तार का साधन है। इस उध्वस्रोत के बलाधान के लिए आवश्यक है विपुल चेष्टा और अभ्यास, जिससे सत्त्वशक्ति सकल, देहेन्द्रिय को परिव्याप्त कर सके। अविराम जीवन संग्राम में सत्त्व तत्त्व की परिव्याप्ति के अनुस्मरण के साथ ही प्रवृत्ति सत्य पर प्रतिष्ठित लोक शिवात्मक और परम सुन्दरात्मक होता है। लोक के साथ अतिशय सान्निध्य ( close relation) एकत्व या अभेद बुद्धि या निर्विकल्पक ज्ञान ही शरण है। यह अभेद बुद्धि तद्भावभावित कर देती है। जीवन के अन्त काल पर्यन्त यह स्मरण परिसंवाद-३ २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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