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________________ भारतीय समन्वय दिग्दर्शन को मिलता है सर्वात्मचिन्तन सम्प्रदाय के रूप में वर्ग विशेष के साथ व्यक्ति विशेष के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। संगीति, साम्प्रदायिक विशेषानुष्ठान इसे शिथिल करने में असमर्थ रहता है। इतिहास के अवलोकन से यह भावना सुदृढ़ होती है कि मूर्ति की उपासना बौद्धों की देन है। इससे पूर्व उपनिषद् युग में मूर्ति की उपासना का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। अतः योगाचार तक के अभ्युत्थान अर्थाकारता उपासना के आधार पर मानना अनुचित नही है। 'आत्मैवेदं सर्वम्' यह श्रुति इस मत का समर्थिका है । धर्म, अर्थ, काम इन तीन वर्गों की स्थिति उपासना की मूल भित्ति पर ही सम्भव है। कामना प्रचुर साम्राज्य अर्थाकारता या मूर्त उपासना की दृष्टि से समर्थित है। निष्काम उपासना अर्थाकार उपासना में सम्भव नहीं है। इस विश्लेषण के आधार पर यह निश्चित है कि विषयों का स्फुरण मानने के लिए वाध्यता है। इस मूर्ति उपासना में ब्राह्मण विरोधी भावना की सुस्पष्ट झलक मिलती है। क्योंकि भगवत्ता की स्फूर्ति के साथ मानवीकरण ( anthropomarphism ) की भावना सन्निहित रखी जाय तो यह मानना ही होगा कि एक भी ब्राह्मण में भगवत्ता स्फुरण नहीं माना गया है, अपितु सभी क्षत्रिय बालक हैं। किंतु सनातन देववाद मानवीकरण वर्ण की भावना से सर्वथा असम्पृक्त सूर्य या आदित्य की प्रतीकात्मक उपासना की दृष्टि से भेदशून्य सकल जन की उपकृति लोकैषणा यथा स्वसुखनिरभिलाषा के साथ ऋत की अर्थाकारता के रूप में उपासना को सन्निहित करता है। दूसरे शब्दों में सनातन उपासना अखण्ड सत्य की अर्थात् ज्योति की उपासना है, जो स्वयं में एक एवं अभेद के साथ सामरस्य स्वरूप है। इस अर्थाकार आत्मस्वरूप में दर्शन की विश्रान्ति भी लोक एवं राष्ट्र के कल्याण के लिए पर्याप्त नहीं थी. अतः आत्मा की विषयाकारता के स्फुरण का निषेध कर विषय शून्य सर्वत्र अनुस्यूत आत्मा को उपासना पर बलाधान दिया। "भगन्धमरसमचक्षरश्रोत्रम्' 'सदेव सौम्येदमग बासीत् एकमेवाद्वितीयम्" इस श्रुति वचनों के आधार पर विषयादिस्फुरण शून्य आत्मोपासना सिद्ध हुई। विषयाकारता के निषेध से आत्मोपासक विषय के अभाव का दर्शन करता था, फलतः प्रपञ्चहित आत्मस्वरूप भासमान हुआ। इस अवस्था का अवलम्बन कर वेदान्तद्वारमात्र की स्थिति होती है। इसको वेदान्त की प्राथमिक अवस्था के रूप में उदयन परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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