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________________ भारतीय समन्वय दिग्दर्शन १८६ यह एकान्त नितान्त सत्य है कि दुःख हेय और सुख उपादेय होता है। दुःख के त्याग की इच्छा एवं सुख की प्राप्ति की इच्छा मुझे उनके कारणों के अन्वेषण के लिए बाध्य करती है। कारण का उच्छेद कार्य के उच्छेद का यत्न है इसलिए इससे अतिरिक्त प्रयास की अपेक्षा ही नहीं होती है। कारण के अभाव में कार्यमात्र का अभाव प्राणिमात्र को अनुमत है। मिथ्याज्ञान से रागद्वेष आदि दोष का उदय, इससे वाणी, मन शरीर के चेष्टास्वरूप प्रवृति का उदय, प्रवृत्ति से शुभ और अशुभ का आविर्भाव, शुभ और अशुभ के अनुसार जन्म ग्रहण और उससे दुःखानुभूति-यही भवचक्र या संसारचक्र है। इसी विषय को आचार्य अक्षपाद ने स्पष्ट शब्दों में कहा- 'दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः” (न्या० सू० ११११२) मिथ्या ज्ञान दु:ख भवचक्र का मूलाधार है, अतः तत्त्वज्ञान इसके मूल उच्छेद का साधन है। तत्त्वज्ञान अभ्युदय और निःश्रेयस का साधन है। यह मतभेद का विषय ही नहीं है। इस दृष्टि से दर्शन तत्त्वमीमांसा है, जिस मीमांसा के लिए ऊहापोहात्मक अनेक साधन हैं। __ आत्मतत्त्वविवेक में आचार्य उदयन ने भी समन्वय की दृष्टि से दसवीं शताब्दी में ही एक विश्लेषण प्रस्तुत किया था। "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" यह मैत्रेयीब्राह्मण भारतीय दार्शनिकचिन्तन का सारतम उपदेश है । इसी में भारतीय जनता का जीवन प्रवाह और आशा आकांक्षा का पर्यवसान होता है। इस ब्राह्मण का उपसंहार 'एतावदरे खल्वमृतत्त्वम्" वाक्य से किया गया है। आत्मा का श्रवण, मनन और निदिध्यासन ही अभ्युदय और निःश्रेयस का एक मात्र उपाय है। प्रियतमा मैत्रेयी को पारिब्राज्य ग्रहण की भूमिका में यह उपदेश दिया गया है। इस मूल भित्ति पर असंख्य जीवन दर्शन की धाराओं में दर्शन शास्त्र प्रवाहित हो उठता है। आचार्य उदयन ने भारत वसुन्धरा को आत्म साक्षात्कार के लिए श्रुतियों के मुखरित एवं युक्तियों के द्वारा मनन तथा निदिध्यासन के द्वारा साक्षात्कार के लिए उपदेश किया है। आत्मतत्त्व का अपरोक्ष अवभासन ही मोक्ष है। आत्मतत्त्व के निदिध्यासन या उपासना में प्रवृत्त होने पर उसकी दृष्टि से अखिल जगत्प्रपञ्च को आत्मा से अतिरिक्त ही मानना होगा। यह वही अवस्था है जिस अवस्था में कर्ममीमांसाशास्त्र प्रवृत्त होता है। इस अवस्था में बाह्य दृष्टि की अतिशय प्रधानता अर्थात् लोककल्याणषणा एवं राष्टहितैषणा की दृष्टि से लोकायतमत वार्हस्पत्यशास्त्र प्रवृत्त होता है। धर्मनीति की प्रधानता न होकर राष्ट्रनीति या दण्डनीति की प्रधानता रहती है। यह मार्ग भी अवस्थाविशेष के आयाम में श्रुति समर्थित है-“पराश्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूस्तस्मात्पराङ् परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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