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________________ १८० भारतीय चिन्तन की परम्परा में ननवी सम्भावनाएं जहाँ थक कर अपनी अक्षमता स्वीकार लेता है और अपने स्वत्व को जिज्ञासा में ऊर्ध्वमुख करता है वहीं अन्तःप्रज्ञा के उदय के लिए उपयुक्त भूमि निर्मित हो जाती है। तर्क का दूसरा पक्ष है उस सत्य को अपनी विधि से व्याख्या करना जो अन्तःप्रज्ञा के साक्षित्व से उपलब्ध और सिद्ध हो चुका है। तर्क का यह व्यापार पूर्णतः आगमनात्मक और निगमनात्मक पद्धतियों पर आधारित रहता है जिसमें सामान्य अनुभवों के आधार पर ही तत्त्वमीमांसात्मक विचार को अग्रसारिता किया जाता है। शंकर का अध्यासभाष्य इसी प्रकार के अतिसामान्य अनुभव के विश्लेषण से प्रारम्भ होता है-'युष्मदस्मतप्रत्ययगोचरयोविषयविषयिणोस्तमःप्रकाशवद्विरुद्धस्वभावयोरितरेतरभावानुपपत्तौ सिद्धायाम्, तद्धर्माणामपि सुतरामितरेतरभावानुपपत्तिः' इत्यादि। तर्क के द्वारा अभीष्ट की स्थापना कर अन्त में आगमगम्य वस्तु के साथ उसका सामञ्जस्य प्रदर्शित कर दिया जाता है। चन्द्रकीत्ति अपनी प्रसन्नपदा में शुद्ध युक्ति से अपने सिद्धान्त का स्थापन कर अन्त में बुद्ध वचन का साक्ष्य देते हुए कहते हैं, 'एतच्चोक्तं भगवता,' 'यथोक्तं भगवता' इत्यादि । यही भारतीय पद्धति रही है। इसे हम आगम का न तो अन्धानुगमन कह सकते हैं और न युक्ति की दुर्बलता ही। वेदान्त में युक्ति के प्राबल्य को देखते हुए ही तो वाचस्पतिमिश्र कहते हैं कि 'वेदान्तमीमांसा तावर्तक एव ।' देशकाल की प्रवृत्ति के अनुसार चिन्तन की प्रक्रिया में अन्तर होना तो स्वाभाविक और उचित भी है। यही कारण है कि एक ही अद्वैतवेदान्त शंकराचार्य और राधाकृष्णन् के लेखों में भिन्न प्रक्रियाओं से व्याख्यात मिलता है। ६. भारतीय दर्शन में देखा जाता है कि कोई नवीन दार्शनिक प्रस्थान खड़ा करने के लिए भी प्राचीन सूत्र या शास्त्रों को अपने अनुरूप व्याख्या की जाती है। इससे यह माना जाता है कि भारतीय दर्शनों में मौलिक चिन्तन अति प्राचीनकाल में हुआ, बाद में उसकी धारा अवरुद्ध हो गयी। केवल पूर्व का या तो पिष्ट पेषण किया गया या यत्किचित् मूलाधारित नवीनता लायी गयी। कहा जाता है कि इस प्रकार दर्शन का नवीन चिन्तन सम्भव नहीं हुआ। इस स्थिति में भारतीय चिन्तन की दिशा क्या हो ? इस प्रश्न का उत्तर आनुषंगिक रूप से प्रश्न सं० ४ के ही उत्तर में अनुस्यूत है जिसमें इतिहास दर्शन का साक्षित्व देते हुए कहा गया है कि वस्तुतः ई० पू० छठी शताब्दी के बाद से कहीं कोई मौलिक चिन्तन हुआ ही नहीं है। इसका अर्थ परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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