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________________ १७८ भारतीय चिन्तनकी परम्परा में नवीन सम्भावनाएं ई० पू० छठीं शताब्दी के बाद से लेकर अब तक जो कुछ भी चिन्तन के क्षेत्र में हुआ है वह मौलिक नहीं है । मानवता उसी ध्रुरीणकालिक ( axial period ) मानक के इर्दगिर्द केवल विभिन्न मुद्राओं में अब भी घूम रही है । पाश्चात्यदर्शन के क्षेत्र में आज जिन मौलिक चिन्तनों की चर्चा की जाती है उनमें से वस्तुतः एक भी मौलिक चिन्तन नहीं है । वहाँ के दर्शन का यही इतिहास रहा है कि किसी भी दार्शनिक मतवाद की स्थिति २५ वर्ष से अधिक की नहीं होती है । अपनी सापेक्षता की दुर्बलता से वे सहज ही निःशक्त होकर विलीन हो जाते हैं । और उनका केवल ऐतिहासिक महत्त्व शेष रह जाता है। वे अभी भी उस निरीक्षण और परीक्षण अथवा अटकलबाजी की स्थिति में है जिसमें हम प्रायः उपनिषत्काल से पहले थे । यह कठोर आलोचना जैसी प्रतीत हो सकती है, परन्तु वाणी है यह इतिहास की, मेरी नहीं । अतः उपर्युक्त प्रसंग में स्वतन्त्र दार्शनिक चिन्तन का अर्थ हो सकता है केवल परिवर्तित जीवन प्रक्रिया के साथ वैचारिक सामञ्जस्य, जो यहाँ होता आ रहा है और होता भी रहेगा । जहाँ तक पूर्णतः धर्म निरपेक्ष दार्शनिक चिन्तन के वर्ग बनने का प्रश्न है उस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि यदि दर्शन और धर्म के सम्बन्ध विषयक मूल भारतीय दृष्टिकोण का त्याग कर दिया जाय और पाश्चात्य विचार का ही अनुकरण किया जाय तो वहाँ की परम्परा के अनुसार यहाँ के दर्शनों को भी खींचतान कर उनका वर्गीकरण किया जा सकता है । परन्तु यह न भूलना होगा कि उस स्थिति में यहाँ के दर्शनों की भारतीयता धूमिल हो जाएगी क्योंकि इस अप्राकृतिक विभाजन के द्वारा यहाँ दर्शन और धर्म के बीच जो गहरा सम्बन्ध रहा है, वह आवृत्त हो जाएगा । ५. भारतीय दर्शनों में प्रायः यह देखा जाता है कि अपने मत के पक्ष में आगमों की सहमति तथा विपक्ष के खण्डन में उसकी विमति के लिए आगम वचन उद्धृत किये जाते हैं। इनका एक अभिप्राय यह हो सकता है कि भारतीय दर्शनों का युक्तिवाद दुर्बल है । इस दुर्बलता को हटाने की दिशा में दार्शनिक चिन्तन की प्रक्रिया क्या हो ? इस प्रश्न का भी विचार और उत्तर गत प्रश्न के उत्तर के साथ सम्बद्ध है । ऐसा नहीं समझना चाहिए कि रूढ़िवादिता ( dogmatism ) के रूप में यहाँ आगमों का अनुसरण किया जाता है । जो अन्तःप्रज्ञा के द्वारा ही सम्वेद्य है । वह वास्तविक होने के कारण सदा सबके सम्मुख है और किसी के भी द्वारा उस शक्ति परिसंवाद - ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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