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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं ४ - यह कहना कि भारतीय दर्शन में केवल धार्मिक मान्यताओं और विश्वासों की पुष्टि की गयी है उचित नहीं है, क्योंकि सभी भारतीय दर्शनों में ज्ञान कोही मानव जीवन का चरम लक्ष्य निःश्रेयस का प्रमुख साधन बताया गया है। और वह ज्ञान धर्म और आचारों का नहीं, किन्तु मुख्य रूप से आत्मानात्मा सभी पदार्थों के विषय में अपेक्षित है । धर्म और विश्वास की चर्चा उस समय आती है जब दार्शनिक ज्ञान को जीवन में उतारने का प्रसङ्ग उपस्थित होता है, और यह नितान्त आवश्यक है क्योंकि कोरा ज्ञान मनुष्य को नैतिक बनाने में कभी सफल नहीं हुआ है । अतः भारतीय दर्शनों के सम्बन्ध में सत्य यह है कि भारतीय दर्शन का समस्त चिन्तन ज्ञेयविषयों पर आधारित है धर्म अथवा सम्प्रदाय पर नहीं । १६० ५ - यह सत्य है कि भारतीय दर्शन के अन्तरवर्ती चिन्तक अपने चिन्तन में पूर्ववर्ती विद्वानों के संवाद का उल्लेख करते हैं किन्तु उससे यह निष्कर्ष निकालना कि भारतीय दर्शनों का युक्तिबाद दुर्बल हैं, ठीक नहीं कहा जा सकता, अपितु इस पद्धति से यह प्रमाणित होता है कि भारतीय दर्शन की चिन्तन परम्परा काल की दृष्टि से बड़ी लम्बी परम्परावाली है और इस परम्परा के विद्वानों ने जो चिन्तन किये हैं उनमें लम्बे काल के ब्यवधान होने पर अनेक विषयों में आज भी समता है । उत्तरवर्ती विद्वानों के चिन्तन का उल्लेख इस बात को प्रमाणित करने में उद्धृत नहीं किया जा सकता कि उत्तरवर्ती विद्वानों में स्वतन्त्र चिन्तन की क्षमता नहीं है और उन्होने पूर्ववर्ती चिन्तकों की बात नयी शैली और शब्दावली में प्रस्तुत की है। क्योंकि संवाद का प्रदर्शन समग्र चिन्तन में न होकर किसी विषय विशेष के चिन्तन ही प्रदर्शित किया हुआ होता है । ६ - यह सत्य है कि भारतीय दर्शनो के लेखक उत्तरवर्ती विद्वानों ने पूर्ववर्ती सूत्रग्रन्थों का अथवा वैदिक और औपनिषदिक वचनों का अवलम्बन कर उनकी विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। किन्तु ऐसा निष्कर्ष निकालना उचित नहीं प्रतित होता कि यह कार्य उत्तरवर्ती विद्वानों में स्वतन्त्र क्षमता न होने के कारण हुआ, क्योंकि यह स्पष्ट देखा जाता है कि एक छोटे से सूत्र के उपर एक अत्यन्त विस्तृत भाष्य ग्रन्थ की रचना होती है, जिसमें ऐसे असंख्य विचार भरे रहते हैं जो पूर्ण मौलिक होते हैं और प्रायः ऐसा देखा जाता है कि यथाश्रुत सूत्र से जो अर्थ उपलब्ध होता है वह व्याख्या ग्रन्थों में पूर्णतया परिवर्तित हो जाता है । निश्चय ही यह स्थिति विद्वानों के स्वतन्त चिन्तन की क्षमता का परिणाम है। पूर्व सूत्रों का आधार केवल चिन्तन के इतिहास की अविच्छिन परम्परा को बनाये रखने के लिये किया जाता है । परिसंवाद - ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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