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________________ १५६ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं की सीमा के बाहर है। उसमें परम्परागत दर्शनशास्त्र बहुत कुछ सहायक होंगे। फिर विज्ञान और दर्शन में कौन सा श्रेष्ठ है ? यह अभी विचारणीय नहीं है। जीवन के क्षेत्र में दर्शन की श्रेष्ठता निर्विवाद है। कहा जाता है कि एक दिन विज्ञान बुद्धि ( मस्तिष्क ) आत्मा और पदार्थ के बीच का भेद समाप्त कर देगा। उस समय सम्भव है कि दर्शन और विज्ञान का भेद समाप्त होने लगे और उस स्थिति में इन दोनों के बीच वरीयता का प्रश्न समाप्त हो जायेगा। इस सम्भावना के लिए भारतीय दार्शनिकों को चिन्तन की दृष्टि से समर्थ रहना चाहिए। अस्तु यहाँ वक्तव्य इतना मात्र है कि अपने दार्शनिक ज्ञान की वृद्धि में वैज्ञानिक उपलब्धियों का सहारा लेना चाहिए। यह महत्त्वपूर्ण कार्य दार्शनिक चिन्तन के परम्परागत वर्गीकरण के बीच कैसे सम्भव होगा? इसके लिए यह अपेक्षित होगा कि भारतीय दर्शन अपने धार्मिक एवं साम्प्रदायिक केचुल को उतार कर दार्शनिक समस्याओं के आधार पर यथासम्भव एक जगह मिले। भारतीय दर्शनों का नयावर्गीकरण और उसके आधार पर नवीन तत्त्व चिन्तन तभी सफल होगा जब हम दर्शन में प्रक्रिया के महत्त्व को स्वीकार करें। दर्शन एक चिन्तन की प्रक्रिया है जो ज्ञान को विशुद्ध से विशुद्धतर और विशुद्धतम बनाता है। इस प्रक्रिया के बीच ताकिक वैज्ञानिकता है इसके आधार पर जो नये तथ्य भायेंगे, वे परीक्षा के द्वारा या तो खण्डित होंगे या गृहीत होंगे। यह प्रक्रिया वास्तव में चिन्तन के विकास की प्रक्रिया है, यह तथ्यों का गम्भीर प्रेक्षण है। किसी भी सिद्धान्त के विकास की एक अवस्था में जो तथ्य तर्कसम्मत एवं सार्थक होंगे उसकी इयता ज्ञात रहेगी। विकास की दूसरी अवस्था में नये तथ्य उभर सकते हैं जो पूर्व से भिन्न होंगे। दार्शनिक का कार्य उसके विकासक्रम में उसका मूल्यांकन करना है। इस प्रकार इस प्रक्रिया के द्वारा सत्य का आकलन होता है और असत्य का निराकरण होता है। यह सम्मव होगा कि धर्म उसे पूर्ण न कहे। वास्तव में पूर्णता, धार्मिक अवधारणा है दार्शनिक नहीं। दर्शन अपनी प्रक्रिया से पूर्णता की खोज करता है किन्तु उसकी पूर्णता गतिशील है कभी रूढ़ नहीं है। समझने की दृष्टि से विज्ञान के समीप इसे ले जाकर पूर्णवाद की जगह प्रयोगवाद कहा जा सकता है। जब हम परम्परागत भारतीय दर्शनों के नये वर्गीकरण का प्रस्ताव करते हैं तो हमारा ध्यान भारतीय दर्शनों के दुरूह एवं अतिविस्तृत साहित्य की रक्षा करने की ओर भी रहना चाहिए। अब तक उसकी रक्षा धर्मों और सम्प्रदायों के संकीर्ण वीथि परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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