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________________ भारतीय दर्शनों के नये वर्गीकरण की दिशा १५३ विकास के अवरोधक भी सिद्ध हुए। यही कारण है कि बिना पूर्व मान्यता के या किसी व्यक्तिविशेष और ग्रन्थविशेष के प्रामाण्य को स्वीकार किये केवल तर्क और आधुनिक प्रमाणों के सहारे भारतीय चिन्तन नहीं बढ़ सका। दर्शन का एक प्रमुख काम है बुद्धि को कुण्ठाओं से निकालना। यह कार्य दर्शन तब तक नहीं कर पाएगा, जब तक चिन्तक की बुद्धि कुछ निश्चित परम्पराओं से घिरी रहेगी। पुराने विचारों शब्दों, परिभाषाओं, विभिन्न प्रकार के संस्कारों एवं संस्मरणों से मनुष्य का मन समृद्ध रहता है। सामान्यतः उन्हीं के सहारे वह अपने चिन्तन को आगे बढ़ा पाता है। किन्तु वे ही एक मात्रा के बाद उसके गतिरोध के कारण भी बनने लगते हैं। इस स्थिति में दर्शन की समस्या यह है कि वह चिन्तक को उसके इतिहास के अनावश्यक बोझ से मुक्त कैसे रखे ? उक्त मूल समस्या की ओर भारतीय दार्शनिकों का ध्यान बहुत पहले ही गया था। उनका यह निष्कर्ष था कि वास्तविक चिन्तन के मार्ग में विकल्प बाधक हैं। इसके लिये उन्होंने चिन्तन को निर्विकल्प रखने की चेष्टा की थी। उन्हें यह मालूम था कि शब्द चिन्तन को बढ़ाते हैं और उसे कुण्ठित भी करते हैं। इसके लिए मन के विविध संस्कारों और शब्दों से ऊपर उठना ही उन दार्शनिकों की प्रेरणा थी। अवश्य ही आज यह विचारणीय है कि उनका यह उद्देश्य कहाँ तक पूर्ण हुआ। यह ठीक है कि शास्त्र हमें चिन्तन के लिए मार्ग देते हैं, किन्तु यह भी ठीक है कि शास्त्रवाद नए मौलिक चिन्तन का विरोधी बन जाता है। यह तथ्य है कि महर्षि व्यास के ब्रह्मसूत्र के आधार पर परस्पर विरोधी अनेकानेक वेदान्तों का विकास हुआ। मूल त्रिपिटक को आधार बनाकर बौद्धदर्शन के परस्पर भिन्न अनेकानेक दार्शनिक प्रस्थानों का विकास हुआ। किसी भी स्थिति में व्यास या उनके ब्रह्मसूत्र को भगवान बुद्ध या त्रिपिटक को छोड़ा नहीं गया। इसके बावजूद दार्शनिक चिन्तन की यह महिमा है कि शास्त्र के घेरे में रहकर भी यथासम्भव परस्पर विरोधी चिन्तनों का विकास हो जाता है। इसमें शास्त्र-निरपेक्ष चिन्तन के बीज मिलते हैं। इससे यह सम्भावना निकलती है कि समय से पहले शास्त्रमुक्त चिन्तन यदि हुआ होता, तो भारतीय दर्शनों का नवीन विकास न हो सकता। प्रश्न है कि क्या शास्त्र निरपेक्ष ज्ञानमीमांसा हो सकती है ? इससे आगे बढ़कर एक यह भी प्रश्न है कि क्या ज्ञानमीमांसा तत्त्वमीमांसा से निरपेक्ष सम्भव है ? इन प्रश्नों के उत्तर का भारतीय दर्शनों के परम्परागत वर्गीकरण से घनिष्ठ परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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