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________________ भूमिका सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालय, वाराणसी का परम्परावादी चिन्तन के क्रम में विशेष स्थान होना स्वाभाविक है। जाति, सम्प्रदाय, देश तथा समाज की समस्यायें काल की दृष्टि से पैदा होती हैं तथा उनका समाधान भी काल की दृष्टि से ही अपेक्षित है पर प्राचीनतम संस्कृति वाले समाज में परम्परा का इतना अधिक प्रभाव रहता है कि वह कालिक समस्याओं का समाधान भी परम्परागत शास्त्रों में ही ढूढ़ता है। ऐसी स्थिति में परम्परागत शास्त्रों से कालिक समस्याओं का समाधान निकालना आवश्यक हो जाता है। इसी आधार शिला पर तुलनात्मकधर्मदर्शनविभाग ने कुछ गोष्ठियों का आयोजन सम्पन्न किया, जिसमें कालिक समस्याओं के समाधान का मार्ग ढूढ़ने का प्रयत्न किया गया है। इन गोष्ठियों के विचार-विमर्श का आलेख इस परिसंवाद नामक पत्रिका में प्रस्तुत किया गया है, जो विद्वानों के विचार के लिए सबके सम्मुख प्रस्तुत हैं। गोष्ठियों के समायोजन के दरम्यान यह बात बराबर चिन्तन के केन्द्र में रही कि कौन सा मुख्य विन्दु बनाया जाया, जहां से नया चिन्तन तथा इससे सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत हो सके। भारतवर्ष में दर्शनों की एक बहुत बड़ी परम्परा है जिसमें प्राचीन काल से समस्याओं के सन्दर्भ में चिन्तन किये गये हैं। दर्शनों में भी दो प्रकार की प्रवृत्तियां हैं, एक सुधारवादी तथा दूसरी अत्यन्त परिवर्तनवादी। सुधारवादी परम्परा में मूल को सदा पकड़े रहने की प्रवृत्ति होती है। तथा कालिक समस्याओं के समाधान का यत्न भी चलता रहता है। इस विन्दु पर परम्परावादी विद्वान् पूर्णतया सहमत नहीं हो पाते हैं, पर व्यवहार की अपर्याप्तता बार बार सुधार के लिए प्रेरणा देती है। पूर्ण परम्परा की जकड़न में पड़े रहने वाले विद्वान् लीक से थोड़ा भी हटना नहीं चाहते तथा बढ़ती हुई कालिक समस्याओं को पुराने समाधान के क्रम में ही ठीक करना चाहते हैं। इनका समाज पर प्रभाव कम होता है, पर पारम्परिक समाधान के निर्णय में इनका मूल्य अवश्य बनता है। पूर्ण परिवर्तनवादी परम्परा भी वाद में रूढ़वादी रूप में भारत में प्राप्त होती है। बार बार के वैचारिक संघर्ष में उसने परिवर्तन के दर्शन को इतना मूल्य प्रदान किया कि परिवर्तन का दर्शन ही परम्परावाद बन गया। ऐसी स्थिति में रूढ़वादी मूलचिन्तक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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