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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भवनाएं
भीष्म या मनु जैसे प्राचीन भारतीय विचारकों से सहमत थे कि राजनीति में हिंसा किसी न किसी रूप में अपरिहार्य है और न वे मैकियावेली, नोत्से, मार्क्स, सोरेल, परोटो, जैसे पश्चिमी विचारकों की तरह मानते थे कि राजनीति से हिंसा को अलग थलग नहीं किया जा सकता । गांधी हिंसाविहीन राजनीति की बात करते थे । उनका यह कहना था अहिंसा की राजनीति कोरा सिद्धान्त नही है वह प्रत्यक्ष व्यवहार भी है । किन्तु वह जानते थे कि अहिंसा का व्यवहार कठिन है जबकि हिंसा का व्यवहार आसान है। वह राजनीति सहित सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में अहिंसा को प्रतिष्ठित करना चाहते थे ।
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उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि गांधीजी ने सत्य और अहिंसा की अवधारणाओं के माध्यम से सामाजिक मूल्यों तथा आदर्शों की एक ऐसी संरचना निर्मित की, जो उनकी दृष्टि में मनुष्य के वैयक्तिक तथा सामूहिक जीवन को अधिकाधिक द्वन्द्वमुक्त या संघर्षमुक्त बनाकर न्यायपूर्ण, शोषणविहीन, शान्तिमय तथा सच्चे अर्थों में मानवीय बनाती है । वह सरल, मुक्त और ऋजु जीवन के दृष्टा थे। ऐसा जीवन सत्य और अहिंसा के मूल्यों पर ही निर्मित हो सकता है । इन सिद्धान्तों पर उनकी अटूट आस्था एक सामाजिक-नैतिक आस्था थी । गांधीजी पूरे सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन को मूलतः नैतिक मूल्यों से अनुप्राणित करना चाहते थे । जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि उनका नेतृत्व प्रधानतः नैतिक नेतृत्व था । मेक्सबेबर ने समाज में दो प्रकार की नैतिक दृष्टियों के अस्तित्व की चर्चा की है। उनमें से एक है अन्तिम उद्देश्यों की नैतिकता और दूसरी है उत्तरदायित्व की नैतिकता । वेबर का कहना था कि नैतिकता के इन दोनों प्रकारों का एक दूसरे से अलगाव समाज तथा राजनीति के लिए घातक होता है। वेबर यह देख रहे थे कि आधुनिक समाजों में और विशेषकर राजनीति में नैतिकता के इन दोनों रूपों का तेजी से ह्रास और अलगाव होता जा रहा है, जो अशुभ है । गांधीजी ने बंबर को तो नहीं पढ़ा था लेकिन वे वैबर से कहीं ज्यादा और कहीं ऊँचे उठकर उस अलगाव को देख रहे थे और उसके समाधान का उन्होंने महान प्रयास किया। उन्होंने अपने चिन्तन तथा कर्म से उक्त दोनों प्रकार की नैतिकता को अभिन्न बनाने की कोशिश की। वे इस युग के एकमात्र चिन्तक तथा नेता थे जिन्होंने जीवन के अन्तिम मूल्यों और व्यावहारिक सामाजिक जीवन
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