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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं का अनुसरण करना तथा किसी सम्प्रदाय विशेष के औपचारिक स्वरूप से अपने को जोड़ना धर्म है। वह प्रचलित धार्मिक सम्प्रदायों के प्रथागत बाह्य स्वरूप को धर्म नहीं कहते थे। वे सम्प्रदायों से ऊपर उठकर मानव समाज तथा मनष्य के आन्तरिक आध्यात्मिक-नैतिक तत्त्वों को धर्म कहते थे। उनका धर्म देश तथा काल की सीमाओं से आबद्ध धर्म नहीं था। अतः जब वे धर्म को राजनीति से जोड़ते थे तो उनका तात्पर्य हिन्दू, इस्लाम, ईसाई आदि सम्प्रदायगत धर्मों से नहीं था। वे राजनीति को मात्र सत्ता केन्द्रित न बनाकर सर्वोच्च, मूल्यों एवं आदर्शों से नियमित एवं निर्देशित करना चाहते थे। जहाँ एक ओर वह सत्ता केन्द्रित राजनीति को भौंड़ी और दूषित मानते थे, वही दूसरी ओर वह राजनीति को सत्तालोलुप लोगों के हाथ में देकर समाज की दुर्गति भी नहीं होने देना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने राजनीति को पूर्णतया त्याज्य समझने की बात नहीं की। उन्होंने दूषित राजनीति को छोड़कर शुद्ध और नैतिक राजनीति को प्रतिष्ठित करने की बात की। इसीलिए गांधी जी कभी निजी और सार्वजनिक अथवा राजनीतिक या व्यक्तिगत नैतिकता को एक दूसरे से अलग नहीं करते थे। उनकी नैतिकता विभिन्नीकृत या विखंडित नहीं थी। उनकी पूर्ण या सम्यक् नैतिकता उनकी उन आधारभूत अवधारणाओं पर आधारित थी जिनमें सत्य और अहिंसा सबसे प्रमुख थे। उपरोक्त पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर गांधीजी की बिचार प्रक्रिया तथा उससे प्रसूत अवधारणाओं का विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है। कि सत्य, अहिंसा, स्वराज्य या सत्याग्रह आदि अवधारणायें सामाजिक दृष्टि से अनेक विशेषताओं से युक्त हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे प्रधानतया आदर्शात्मक हैं। आदर्शात्मकता को प्रधानता देने के कारण दार्शनिकता तार्किकता की दृष्टि से गांधीजी की अवधारणाओं में सम्भवतः वह निश्चितता तथा कसाव तथा असंदिग्ध स्पष्टता नहीं मिलती जो अधिकांश दार्शनिकों द्वारा प्रयुक्त अवधारणाओं में मिलती हैं। आदर्शत्मकता के प्राधान्य के अतिरिक्त गांधी की अवधारणाओं में गत्यात्मकता, सापेक्षिकता तथा द्वन्दात्मक विकासशीलता की विशेषतायें दृष्टिगत होती है। उनकी कोई भी अवधावणा जड़ नही थी। वह नवीन अनुभवों और जीवन के स्तरों के अनुरूप विकसित और परिवद्धित होती थी। गांधी ने जीवन भर अपनी अवधारणाओं का बदलती परिस्थितियों के सन्दर्भ में परीक्षण किया, टटोला और और नये संदर्भो में उनका विस्तार किया, परिमार्जन किया। हर स्थिति में उन अवधारणाओं की परख करके उनके सार्वकालिक सामाजिक महत्त्व को सिद्ध किया। परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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