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________________ 6 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 IV जैन धर्म में बताये गये सभी अनुशासन एवं सभी निर्देश उसके जीव, बन्धन एवं मोक्ष-विचार पर केन्द्रित हैं, अत: अब हम उन्हीं पर सामान्य रूप में विचार करेंगे। कहा गया है कि हर द्रव्य में कुछ अनिवार्य गुण होते हैं, और कुछ पर्याय। 'जीव' का आवश्यक गुण है 'चेतना'। चेतना की परिधि स्वरूपत: असीमित है। चेतना की किरणें प्रकाश-रूप हैं, जो अपने मूल रूप में असीम हैं। किन्तु यदि हम प्रकाश को किसी घेरे में बाँध देते हैं, तो प्रकाश की किरणें वहीं तक सिमट जाती हैं। 'जीव' के साथ भी ऐसा ही है; वह चेतना को घेरे में बाँध लेता है। वह शरीर के माध्यम से ही चेतन होता है, अत: उसकी असीम चेतना शरीर एवं इन्द्रियों तक ही सिमटी रहती है। यह सिमटना ही तो जीव का बन्धन है, जो जीव के अपने कर्मों तथा संस्कारों के कारण होता है। जैन तत्त्व-दर्शन में इसका विशद विवरण है—किस प्रकार जीव के कर्मों के फलस्वरूप 'पुद्गल-कणों' का 'आश्रव' होता है, और जीव शरीर के घेरे में बँधकर बद्ध जीव हो जाता है। अब वह शरीर के साथ एकरूप हो जाता है, और यह एकरूपता जितनी सघन होती है, उसकी चेतना भी उतनी ही सीमित हो जाती है । - इस तात्त्विक विवरण में एक बड़ा ही मानवीय तथ्य छिपा है, जिसे प्रकाश में लाने पर जैन विचार की आधुनिक प्रासंगिकता भी स्पष्ट होती है। इस तात्त्विक पृष्ठभूमि में कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण विचार निहित हैं, जिन्हें आधुनिक मानवतावाद का हर रूप उभारने की चेष्टा करता रहता है। इसमें एक ओर तो 'जीव' की-मनुष्य की-आन्तरिक शक्ति पर प्रकाश पड़ता है, और दूसरी ओर इस तथ्य पर कि वह स्वयं अपना भाग्यनिर्माता भी है। यदि वह 'घेरे' में पड़ता है तो अपने कर्मों के कारण ही और यदि वह मुक्त भी होता है तो अपने ही प्रयत्नों से। जैन विचारों में तो विभिन्न प्रकार के कर्मों का उल्लेख हुआ है, और यह भी बताया गया है कि किस प्रकार के कर्म का क्या प्रभाव पड़ता है। उन तात्त्विक विवेचनों में उलझे बिना यह निर्विवाद रूप में कहा जा सकता है कि जैन विचार की यह मान्यता है कि 'जीव' की विसंगतियाँ उसके अपने ‘किये' के परिणाम हैं। इसमें यह विचार भी निहित है कि यह भी ‘जीवं' पर ही निर्भर है कि वह अपने जीवन को सार्थक एवं सशक्त मार्ग पर अग्रसर करा सके। इस प्रकार जैन दर्शन में मानव की उनींद मानवता को जाग्रत करने का एक स्पष्ट आह्वान है। जीव शरीर के घेरे में बँधकर, सीमित चेतना के अज्ञानवश, कुछ ऐसी प्रवृत्तियों (कषाय) का दास हो जाता है कि उसके जीवन में अनेक प्रकार के क्लेश एवं विसंगतियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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