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________________ 252 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 आत्मा को भोक्ता नहीं मानते हैं। आत्मा को भोक्ता कहने का तात्पर्य यह है कि व्यवहारनय से आत्मा कर्मजन्य, सुख-दुःखरूप, इन्द्रियों के विषय को भोगता है, और निश्चय नय से वह अपने चेतन का भोक्ता है, अर्थात् शुद्ध भावों का भोक्ता है । (७) आत्मा शरीर - प्रमाण है: यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण आत्मा का विशेषण है कि आत्मा असंख्यात-प्रदेशी होने पर भी कर्म के अनुसार प्राप्त शरीर के बराबर ही प्रत्येक संसारी जीव की आत्मा होती है। वह नहीं तो उससे छोटी होती है और नहीं उससे बड़ी । एक उदाहरण द्वारा इस बात को स्पष्ट किया गया है; जैसे किसी दूध के बरतन में नीलमणि को डालने पर उसकी प्रभा से उस बरतन का सम्पूर्ण दूध नीला हो जाता है, उसी प्रकार कर्मजन्य शरीर में आत्मा भी प्राप्त हो जाता है। लेकिन मुक्त जीव जिस शरीर से युक्त हुआ है, उससे उसका आकार कुछ कम होता है । (८) आत्मा अमूर्तिक है : आत्मा अमूर्तिक है; क्योंकि आत्मा में निश्चय नय की दृष्टि से रूप- रस, वर्ण, गन्ध नहीं पाये जाते हैं । जिनमें ये गुण नहीं पाये जाते हैं, वे अमूर्तिक होते हैं और जिनमें ये गुण पाये जाते है, वे मूर्तिक होते हैं । व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा अमूर्तिक होते हुए भी मूर्तिक है; क्योंकि उसका सम्बन्ध मूर्तिक कर्मों के साथ रहता है | इसलिए यहाँ शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा से उसे अमूर्तिक बतलाया गया है | आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है : I जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं । .१५ ओगेण्हिता जोग्गं जारादि वा ता जाणादि ॥ (९) आत्मा कर्म से युक्त है : संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्ममल-कलंक से युक्त है । द्रव्य और भावकर्मों के कारण यह सदैव नये-नये कर्मों को बन्द करता रहता है | वास्तव में आत्मा कर्म से युक्त नहीं है; क्योंकि कर्म परपदार्थ है और परपदार्थ का एक दूसरे के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता । इसलिए व्यवहारनय की अपेक्षा से आत्मा को कर्म से युक्त कहा गया है। जब यह आत्मा अपने कर्मबन्धनों का विनाश कर देती है, तब वह अपने स्वभाविक स्वरूप को प्राप्त कर लेती है। इस अवस्था को ही मुक्त अवस्था कहा गया है। आत्मा मुक्त होकर स्वभाव से ऊर्ध्व-गमन करती है और लोकाकाश के अन्तिम भाग में जाकर ठहर जाती है । इसी अन्तिम भाग को सिद्धशिला के नाम से जाना जाता है । इस मुक्त आत्मा का पुनः जन्म-मरण नहीं होता है, इसलिए इसे कृत-कृत्य कहा गया है । Jain Education International (१०) आत्मा ज्ञान प्रमाण है : आचार्य कुन्दकुन्द ने 'प्रवचनसार' के ज्ञानाधिकार में विशेष रूप से विचार किया है। जैसे : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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