SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 238 Vaishali Institute Research Bulletin No.8 के समान इस जैन धर्म को अस्तित्ववान् बनाये रखा। वर्धमान ने अपने आत्मज्ञान एवं मुक्ति-सम्बन्धी विचारों से अपने क्रियावाद को ऊपर उठाया, उसमें जीवनी-शक्ति डाल दी। यही काम वैदिक वेदान्तियों-शंकराचार्य जैसे विद्वानों ने किया था और यही बात बहुत कुछ बुद्धदेव ने भी की थी। भले ही बुद्धदेव ने आत्मा के विषय में मौन स्वीकार किया था और सर्वज्ञता को असम्भव बताया था; पर बुद्ध की बुद्धत्व-प्राप्ति में दुःखप्रतिगामिनी प्रतिपदा का महत्त्व स्वीकार किया गया है। यदि परलोक-तत्त्व और पुनर्जन्म को छोड़ दिया जाय, तो भी इस लोक में दुःखरहित आनन्दमय जीवन बिताने के लिए बौद्ध, जैन, वैदिक, वेदान्तिक, इसाई, इस्लाम आदि विभिन्न धर्मों में मानव-जीवन को सुखमय बनाने के प्रायः सभी विचार समान रूप से मिलते हैं। यहाँ बृहदारण्यकोपनिषद् के एक प्रसंग पर ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक हो जाता है, जो ज्ञानकाण्ड का होते हुए भी व्यवहार के लिए विश्वप्रसिद्ध प्रकरण है। बृहदारण्यकोपनिषद् के पंचम अध्याय के दूसरे ब्राह्मण में एक रोचक उपदेश-कथा आई है। नियमित रूप से ब्रह्मचर्य-उपासना करते हुए देव, मनुष्य और असुर को बारी-बारी से जिस एक ही अक्षर का उपदेश दिया गया, वह है—'द' । इसे हम 'द-द-द' भी कह सकते हैं। लेकिन उक्त तीन प्रकार के पात्रों के लिए इसका तीन प्रकार का अर्थ किया गया है। वैदिक धर्म में देवों को भोगी बताया गया है। यह भोग ऐसा नहीं होना चाहिए कि उसमें अत्यधिक आसक्ति हो जाय । इसलिए प्रजापति ने उनके लिए 'द' का अर्थ 'दाम्यत' समझाया। इन्द्रियों का दमन करना, संयम-यह योगियों के लिए आवश्यक है। यह दमन-वत्ति देवों के समान उपभोग-प्रेमी व्यक्तियों में आ जाय तो किसी भी देश और काल में उनके लिए श्रेयस्कर होगा। यही बात पार्श्वनाथ के चतुःसूत्री या महावीर स्वामी के पंचसूत्री के ब्रह्मचर्य या अनासक्ति; विभिन्न धर्मों के इन्द्रिय-निग्रह, संयम और ब्रह्मचर्य के द्वारा प्रतिपादित है। इससे किसी का विरोध नहीं हो सकता। यह आज भी मानव-जीवन के लिए अतिशय श्रेयस्कर प्रासंगिक पथ है। प्रजापति ने मनुष्यों के लिए 'द' का अर्थ 'दत्त', अर्थात् 'दान करो' समझाया। सामान्य मनुष्य सुख के साधनों का-सुखात्मक वस्तुओं का भविष्य के लिए संग्रह करना चाहता है, जिससे उसके भीतर कृपणता आती है। यदि मनुष्य कृपण हो जाय, कुछ दान ही न करे, तो स्वयं वह कैसे जी सकेगा? इसीलिए देनेवाले को 'देव' कहा जाता है, जो मनुष्य का एक उच्च आदर्श है । यद्यपि जैन धर्म में 'अपरिग्रह' एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, लेकिन उचित पात्र के लिए दान को बहुत महत्त्वपूर्ण बतलाया गया है। यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy