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________________ 'उत्तराध्ययनसूत्र' में वर्णित संन्यास-धर्म 231 शास्त्र के कथनों या उनमें निर्दिष्ट विधानों के निहितार्थ को बिना समझे हम निरर्थक आचरणों में प्रवृत्त होते हैं तथा पारस्परिक साम्प्रदायिक विद्वेष के शिकार बनते हैं और यहीं हम धर्म से दूर हट जाते हैं। उक्त अध्ययन में ब्राह्मणों के दोषपूर्ण आचरण को देखकर श्रमण कहते हैं: तुब्मेत्थ भो!भारधरागिराणं।। अटुं न जाणाह अहिज्जवेए। वेदों को पढ़कर भी उनका अर्थ नहीं जानते। इस संसार में केवल वाणी का भार ढो रहे हो। अतः जात-पाँत का भेदभाव भुलाकर शास्त्रों में विहित सद्गुणों को समझने तथा उनके अनुपालन करने की आवश्यकता है। चरित्रबल ही मनुष्यता का आधार है। उसी से व्यक्ति समादृत होता है । जाति वहाँ व्यवधान नहीं बनता। सामाजिक समता, समन्वय एवं सद्भाव स्थापित करने की बात इस अध्ययन में प्रकृष्ट रूप से व्यक्त है। ये सब श्रामण्य से ही उद्भूत एवं विकसित दरसाये गये हैं। श्रामण्य की महिमा त्याग में है, संयम में है, न कि अन्ध-सम्प्रदायानुराग में । संन्यास का ही दूसरा नाम त्याग है। इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र संन्यास के मूलाधार 'त्याग' की महिमा को प्रतिष्ठापित करता है। काम-भाव, इच्छा, आकांक्षा, आसक्ति, जो पर्यायवाची शब्द हैं, का त्याग ही संन्यास का मूलाधार है, जिसका परिशीलन उत्तराध्ययनसूत्र में प्रभूत रूप से हुआ है। तृष्णा या इच्छा सारे दुःखों का मूल कारण है और वह आकाश के समान अनन्त होती है : इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया।' संसार का सारा सुख सुलभ हो जाने पर भी लोभी पुरुष की इच्छा शान्त नहीं होती। इच्छा की पूर्ति वस्तुओं की उपलब्धि से नहीं होती; क्योंकि विशेष वस्तु की उपलब्धि होने पर दूसरी वस्तु की इच्छा उत्पन्न हो जाती है तथा यह श्रृंखला अबाध गति से चलती रहती है। यदि किसी व्यक्ति को धन-धान्य से परिपूर्ण यह सारा संसार भी दे दिया जाय, तो भी उसे सन्तोष नहीं होगा; क्योंकि इच्छाएँ कभी पूर्णतः तृप्त नहीं होतीं। कसिणं पि जो इमं लोयं पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स। तेणावि से न संतुस्से इइ दुप्पूरए इमे आया। वस्तुतः तृष्णा या इच्छा की पूर्ति अनाकांक्षा से, त्याग से होती है। त्याग से ही इस अध्रुव, अशाश्वत एवं दुःखबहुल संसार में दुर्गति से बचा जा सकता है। आकांक्षा या आसक्ति, चाहे वह जीवन के प्रति हो या सांसारिक भोगों के प्रति, या मन, वचन, काय के स्तर पर ही हों, सारे दुःखों की जड़ है। कामभोग क्षणिक सुख एवं चिरन्तन दुःख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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