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________________ जैन एवं हिन्दू धर्म में परमतत्त्व की अवधारणा न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यचिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम ॥ इस प्रकार जैन एवं हिन्दू धर्म में ईश्वर की अवधारणा आत्मा, मोक्ष और परमात्मा से जुड़ी हुई है। इन तीनों के वास्तविक स्वरूप की जानकारी से ही परमतत्त्व की प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है । परमतत्त्व दोनों धर्मों में नैतिक मूल्यों की पूर्ति हेतु एक आदर्श के रूप में है । व्यावहारिक दृष्टि से भले ही ईश्वर संसार का निर्माता, व्यवस्थापक एवं कारुणिक दिखाई देता हो, किन्तु परम समाधि की दशा में वह शुद्ध चैतन्य, ज्ञान एवं आनन्दरूप है । उस परमतत्त्व के विभिन्न नाम दोनों धर्मों में प्रायः समान हैं और जहाँ नामों की भिन्नता, दृष्टिगत होती है, वहाँ वे नाम परमात्मा के जिन गुणों के प्रतीक हैं, वे प्रायः समान हैं कि वह सर्वथा दुःखों से मुक्त है, चेतन, ज्ञान और आनन्दमय है । वह अपनी परमसत्ता को छोड़कर पुनः सांसारिक बन्धनों में नहीं फँसता । इन दोनों धर्मों में परमात्मा की प्राप्ति के साधनों में भी समानता है, केवल नामों का अन्तर है । ऐसे परमतत्त्व का उपयोग संसारी आत्मा उसकी उपासना द्वारा अपने विकास के लिए करता है, ताकि एक दिन वह भी उसी के समान बन जाय । 227 इस आत्मविकास के मार्ग में जिन नैतिक आदर्शों का पालन किया जाता है, वे मानवता की रक्षा एवं प्राणी मात्र के कल्याण के लिए भी उपयोगी है । उपासनामूलक धर्म से जब हिन्दू धर्म की कोटि में आता है, तब वह जैन धर्म के निकट हो जाता है । परमात्मा की अवधारणा और उसकी प्राप्ति के उपाय दोनों को अधिक नजदीक लाते हैं । किन्तु आचार- पक्ष और उपासना-पक्ष में ये दोनों धर्म अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। जीवन में अहंभाव और ममत्व को त्याग करने का प्रयत्न करना, विचारों में उदारता रखते हुए आग्रह नहीं करना, व्यक्तिगत जीवन के लिए अधिक संग्रह नहीं करना और सामाजिक जीवन में प्राणी-रक्षा को प्रमुखता देना मानव-जीवन के वे मूल्य हैं, जो विश्व में शान्ति और सन्तुलन बना सकते हैं। नैतिक जीवन-पद्धति से ही परमतत्त्व की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है । Jain Education International सन्दर्भ-स्त्रोत : १. बृहदारण्यक उपनिषद् २.४.८; आचारांगसूत्र ४.४.७४ २. हनुमन्नाटकम् (दामोदर मिश्र) १.३ ३. गीता, ११.२८; मुण्डकोपनिषद् ३.२.८ ४. लाड, ए.के., भारतीय दर्शनों में मोक्ष-चिन्तन : एक तुलनात्मक अध्ययन, भोपाल, १९७३ ई., पृ. २९७-२९८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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