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________________ जैन एवं हिन्दू धर्म में परमतत्त्व की अवधारणा किया जा सकता है कि परमसत्ता के गुणों एवं नामों की सार्थकता उन्हें प्रतीकात्मक रूप में स्वीकार करने में है । इससे चिन्तन के क्षेत्र में समन्वय को बल मिलता है। जैन दर्शन की मान्यता है कि निश्चयनय के अनुसार परमात्मा शुद्ध चैतन्यमय है । उसके गुणों का बखान करना व्यावहारिक नय से सम्भव है । उसकी उपासना हम विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से करते हैं, जो उसके गुणों का स्वयं साक्षात्कार करने के लिए होते हैं । उमास्वामी ने ठीक ही कहा है कि “मैं उस परमात्मा को नमन करता हूँ, जो मोक्ष मार्ग का नेता है, कर्मरूपी पर्वतों को नष्ट करनेवाला है और विश्व के समस्त तत्त्वों का ज्ञाता है, ताकि मैं उसके गुणों का साक्षात्कार कर सकूँ ।" यही बात पाश्चात्य दार्शनिक पाल नीलिख स्वीकार करते हैं कि परमसत्ता वर्णविहीन, शुद्ध उजला पर्दा है। इसे लखा जा सकता है, परन्तु इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। ३२ ३३ परमसत्ता के लिए प्रयुक्त नामों का जैन एवं हिन्दू धर्मों में समान रूप से प्रयोग हुआ है। हिन्दू धर्मों में प्रयुक्त जगस्वामी, ज्ञानी, हरि, हर, ब्रह्मा, पुरुषोत्तम आदि सैकड़ों नाम जैन तीर्थंकरों के लिए भी प्रयुक्त हुए हैं । किन्तु इन नामों को प्रतीकों के रूप में लिया गया है । जिसके स्मरण से गुणों की वृद्धि हो वह 'ब्रह्म' है, जिस आत्मा का ब्रह्मचर्य अखण्डित रहा है वह 'परमब्रह्म' है, केवल ज्ञान आदि गुणों के ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण आत्मा 'ईश्वर' है, वह समस्त कर्मों के मल से रहित होकर, आठ गुणों के 'ऐश्वर्य' को धारण करता है इसलिए 'परमेश्वर' है, आत्मा स्वदेह में व्याप्त होने के कारण 'विष्णु' है, स्वयं ही अपने विकास का कारण है, इसलिए 'स्वयम्भू' है 1 आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को 'हिरण्यगर्भ', 'ब्रह्मा', 'प्रजापति' आदि विशेषण प्रदान किये गये हैं, जो उनके विभिन्न गुणों के सूचक हैं। इसी तरह वैदिक ग्रन्थों में भी जैन तीर्थंकरों के कई नामों को विष्णुसहस्रनाम आदि में सम्मिलित किया गया है । अतः परमसत्ता के निरूपण में समन्वय की एक धारा का अवलोकन जैन एवं हिन्दू धर्मों के साहित्य में किया जा सकता है। दोनों धर्मों में परमात्मा के नामों में उपर्युक्त समानता होते हुए कुछ अन्तर भी है। किन्तु यहाँ नामों का महत्त्व नहीं है, गुणों का महत्व है । इसीलिए एक जैन सन्त ने कहा है कि मैं उस परमतत्त्व को सदा नमन करता हूँ, जो राग-द्वेष जैसे आत्मा को दूषित करनेवाले विष से रहित है, अनुकम्पा से भरा हुआ है और समस्त गुण-समूहों से पूर्ण है, जाहे वह विष्णु हो, शिव हो, ब्रह्मा हो, सुरेन्द्र हो, सूर्य हो, चन्द्र हो, भगवान् हो, बुद्ध हो या सिद्ध हो। ३४ परमतत्त्व की प्राप्ति के मार्ग : 225 जैन एवं हिन्दू धर्म में केवल परमत्त्व के स्वरूप, उसके गुण एवं उसके नामों में ही समानता नहीं है, अपितु उस परमतत्त्व को प्राप्त करने, अनुभव करने के मार्गों में भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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