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________________ 220 Vaishali Institute Research Bulletin No.8 सांसारिक सुख त्याग दिये हैं, गीता में 'परमात्मा', वेदान्त में 'ब्रह्म', बौद्ध दर्शन में 'बुद्ध' एवं जैन दर्शन में 'सिद्ध', 'परमात्मा' आदि नामों से जानी जाती हैं। ऐसी स्थिति में साधक और साध्य का अभेद हो जाता है। इस अवस्था में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं रह जाता। इस मुक्त अवस्था को प्राप्त आत्मा अन्य साधकों के लिए उपास्य, ईश्वर, परमात्मा बन जाता है। जैन ग्रन्थ 'समाधिशतक' में मुक्तात्मा को शुद्ध स्वतन्त्र, परिपूर्ण, परमेश्वर, अविनश्वर, सर्वोच्च, सर्वोत्तम, परमविशुद्ध और निरंजन कहा गया है। सामान्यतया यही और इसी तरह के पद ईश्वर या परमेश्वर के साथ व्यवहृत किये जाते हैं। इस प्रकार, ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में भले ही भारतीय मनीषा ने प्राकृतिक शक्तियों, राजा, वीर पुरुष, धर्मगुरु आदि में अपने से अधिक गुणों और शक्ति का अनुभव कर उन्हें ईश्वर की संज्ञा प्रदान की थी, किन्तु बाद में समाधि और ज्ञान को महत्त्व देनेवाले चिन्तकों ने आत्मा के पूर्णरूप से विकसित स्वरूप को ही मोक्ष एवं परमात्मा, देवाधिदेव, ब्रह्म आदि नाम दिये हैं। परमात्मा का महत्त्व : हिन्दू धर्म के विभिन्न विचारकों ने ईश्वर की आवश्यकता के अनेक कारण प्रतिपादित किये हैं। वैदिक दर्शन में परमेश्वर वेदरूपी वृक्ष का फल है। उपनिषदों में ईश्वर समस्त ब्रह्माण्ड के संचालक के रूप में स्वीकृत हैं। जगत् के प्राण-स्वरूप उसी को ब्रह्म कहा गया है। पूर्वमीमांसा में शब्दमात्र ही देवता है। अतः वहाँ वैदिक मन्त्रों को ही देवत्व प्राप्त है। सांख्य एवं योगदर्शनों में कर्मफल ही प्रधान है। अतः, वहाँ ईश्वर उपास्य के रूप में तो स्वीकृत है, कर्मफल-प्रदाता के रूप में नहीं। न्याय-वैशेषिक और वेदान्त दर्शनों में ईश्वर की आवश्यकता संसार के व्यवस्थापक एवं कर्म-नियामक के रूप से स्वीकार की गई है। गीता में ईश्वर के दोनों रूप स्वीकृत हैं। वह कर्म-नियम के ऊपर है और भक्तों के लिए कारुणिक है। किन्तु वहाँ यह भी कहा गया है कि कर्म और उनके प्रतिफल के संयोग का कर्ता ईश्वर नहीं है। कर्मों की व्यवस्था स्वयमेव होती रहती है।११जैन दर्शन कर्म-नियन्ता के रूप में ईश्वर को स्वीकार नहीं करता; क्योंकि इससे कर्म-नियम और ईश्वर दोनों का महत्त्व कम हो जाता है। अतः जैन दर्शन में आत्मा को कर्मों का कर्ता और भोक्ता माना है तथा वही आत्मा कर्मों से मुक्त होकर परमात्मा हो जाता है । अतः कर्म-नियामक और ईश्वर दोनों ही एक ही आत्मा की दो अवस्थाएँ हैं।१२ गीता में नैतिक आदर्श और उपास्य के रूप में भी ईश्वर को स्वीकार किया गया है। पूर्ण वीतराग, निष्काम, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् परमात्मा गीता का नैतिक आदर्श है तो वही वीतराग एवं अनन्तचतुष्टय से युक्त परमात्मा जैन दर्शन की नैतिक साधना का भी आदर्श है।१३ ईश्वर स्वयं सर्वोच्च सत्ता और सर्वोच्च मूल्य है ।१४ गीता और जैन दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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