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________________ 216 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 सर्वापदामन्तकरं निरंतं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव । जाति-व्यवस्था एवं आश्रम-व्यवस्था के सम्बन्ध में जैन नीतिशास्त्र का उदार दृष्टिकोण रहा है। जैन नीतिशास्त्र ने सर्वदा एवं सर्वथा जाति-व्यवस्था का आधार कर्म को स्वीकार किया है और, आश्रम-व्यवस्था में भी व्यक्तिगत अभिरुचि को प्रश्रय दिया है; क्योंकि जैन नीति-शास्त्र का मुख्य उद्देश्य रहा है आध्यात्मिक उन्नयन अथवा मानव की पूर्णत्व-प्राप्ति । यही कारण है कि वह सदा मनुष्य की आन्तरिक वृत्तियों को संयत करने और प्राणियों के बीच समता-भाव के प्रतिष्ठापन में विश्वास रखता नैतिक गुण को सापेक्षिक माना गया है और नैतिक निर्णय के सन्दर्भ में साधनसाध्य की पवित्रता पर ध्यान रखा गया है । इस दृष्टि से जैन नीतिशास्त्र भी अपवाद नहीं माना जा सकता है। मानव-व्यवहार में अनुस्यूत अर्थ या तो लक्ष्य रूप होता है अथवा लक्ष्य की ओर ले जानेवाला साधन रूप। इन अर्थों में पाया जानावाला मूल्य भावात्मक भी हो सकता है और निषेधात्मक भी। निषेधात्मक रूप में पाश्चात्य नीतिशास्त्र की व्याख्या अधिक हुई है। काण्ट-नैतिकता के निरपेक्ष कानून को मानकर चलने की अपेक्षा रखता है। उसके अनुसार कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए, जो दूसरों के लिए हितकर न हो। बटलर भी मनुष्य को आत्मप्रेम तथा दूसरों के हित-सम्पादन के बीच सामंजस्य रखने की सलाह देता है। पुन: सिजविक भी बुद्धिपूर्वक आत्महित तथा परहित का समन्वय करते रहने की शिक्षा देता है। महाभारत में भी इस नैतिकता के निरपेक्ष कानून का निर्देशन हुआ है : आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्। लेकिन, भारतीय आचारशास्त्र इन नीतियों की अपेक्षा और अधिक आगे बढ़कर कहता है कि परिवार की रक्षा एवं उन्नयन के लिए व्यक्ति के स्वार्थों का परित्याग होना चाहिए। पुनः समाज के हितसाधन अथवा उन्नयन के लिए परिवार का और पुनः राष्ट्र के हित अथवा उन्नयन के लिए समाज का त्याग अपेक्षित है। इस प्रकार, महाभारत के इस कथन में नीतिशास्त्र की व्यापकता परिलक्षित होती है। भावात्मक अर्थों में जैन नीतिशास्त्र भी भारतीय नीतिशास्त्र का अनुसरण करता है। यहाँ कहा गया है कि मनुष्य को यथाशक्ति निर्वैयक्तिक ढंग से स्वतन्त्र, अथवा अर्थवान् जीवनक्षणों के उत्पन्न करने की कोशिश करनी चाहिए; क्योंकि वीरों के संकल्प तथा निर्णय सदैव सुरक्षा तथा उपयोगिता की परिधि में नहीं रह सकते। वे सम्मानित परम्परा एवं व्यवहारों को भी कुठाराघात करने में नहीं चूकते। इस सन्दर्भ में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की पक्तियाँ द्रष्टव्य हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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