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________________ 212 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 मोक्ष की अवधारणा, उसके साधनपथ सांसारिक दुःख एवं उससे मुक्ति एवं अन्ततः आत्म-साक्षात्कार अथवा ईश्वरानुभूति आदि। आप्तवचन, वेद की प्रामाणिकता इसी श्रेणी में परिगणित हैं। इनके अतिरिक्त सन्तों, महात्माओं एव सिद्धों के वचन भी प्रामाणिक मान कर भी नीतिशास्त्रों का गठन होता रहा है। इस सन्दर्भ में महाभारत ने कहा है-"श्रुतयो विभिन्ना स्मृतयो विभिन्नता नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥” ध्यातव्य है कि परम्परा से समर्थित जहाँ साधारण धर्म और नीति-नियमों का वर्णन हुआ है, वहाँ दूसरी ओर परिवर्तनशील नियमों का भी प्रतिपादन हुआ है। स्मृतिकारों ने युगधर्म, युगह्रास, आपद्धर्म का विधान अधिकार एवं शक्तिभेद के आधार पर किया है, जो परिवर्तनशील सिद्धान्तों का स्वीकरण ही कहा जा सकता है। - इनके अतिरिक्त मानव-जीवन के प्रमुख चार लक्ष्य माने गये हैं, जिन्हें पुरुषार्थ कहते हैं। वे क्रमशः धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष हैं। काम एवं अर्थ यद्यपि ये दोनों लौकिक जीवन के उन्नयन के लिए हैं, तथापि वे दोनों सर्वदा धर्म की परिधि में रहकर ही काम्य हैं। धर्म एवं मोक्ष आध्यात्मिक उन्नयन के लिए हैं और जीवन के अन्तिम पुरुषार्थ हैं। भारतीय नीतिशास्त्र इन चारों पुरुषार्थों को लक्ष्य में रखकर ही संचालित होता हैं। इसी दृष्टिकोण का प्रभाव है कि राज्य की राजनीति, विधिशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, वैयक्तिक सामाजिक कर्त्तव्य आदि के अन्तर्गत नीतिशास्त्र प्राणतत्त्व की तरह व्याप्त है। तात्पर्य यह है कि भारतीय सन्दर्भ में कोई भी कर्त्तव्य या अधिकार नीतितत्त्व की परिधि में ही संचालित होते रहे हैं और वे अध्यात्म, धर्म एवं नीति के साथ ऐसे घुल-मिल गये हैं, जो पृथक्-पृथक् नहीं रह सकते । इस सन्दर्भ में जैनधर्म का नीतिशास्त्र भी विकसित एवं पल्लवित हुआ है। स्वाभाविक है कि उसके नीतिशास्त्र भी जैनधर्मदर्शन की पूर्व मान्यताओं से अलग नहीं है, बल्कि उनका भी आधार यही पूर्व मान्यताएँ हैं । यद्यपि जैनधर्म एवं दर्शन में सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता ईश्वर का अस्तित्व नहीं स्वीकार किया गया है और न वेद की प्रमाणिकता ही। इन पूर्वमान्यताओं के अन्तर्गत यहाँ आत्मा, अर्थात् जीव, कर्म एवं कर्मफल की प्राप्ति, ज्ञान आदि कुछ विशिष्ट मान्यताएँ अपना एक विशिष्ट स्थान रखती हैं। बताया गया है कि आत्मा स्वरूपतः ज्ञानमय है और अनन्त है । लेकिन जब यह आत्मा, अर्थात् जीव संसार में रहता है तो कर्म-पुद्गलों के आवरण के कारण मिथ्या ज्ञान में भ्रमण करता है। उसे मिथ्याज्ञान ही वास्तविक ज्ञान के समान लगता है। वह कर्ता एवं भोक्ता दोनों है। और वह अपने प्रयत्नों से मुक्त होकर अर्हत्व की प्राप्ति कर सकता है, जहाँ अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त वीर्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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