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________________ अनेकान्तवाद और अहिंसा : एक शास्त्रीय परिशीलन हैं— इस प्रकार विचार करना ही प्रतिपक्ष की भावना है। 'भावना' एक विशेष शब्द है । बार-बार अभ्यास करने को 'भावना' या 'भावनम्' कहते हैं। आयुर्वेद में किसी औषधि के निर्माण के लिए आवश्यक अन्य तरल द्रव्य की 'भावना' दी जाती है; यथा - मण्डूर के लिए गोमूत्र की भावना दी जाती है— लोहे के अयस्क में गोमूत्र डालकर खरल में घोटते हैं; पुनर्नवा के स्वरस को भी मण्डूर में डालते हैं | सत्य (अमृषा) के विरोधी भाव झूठ का व्यवहार करने पर, वह यदि जरा-सा भी हो तो भी वह झूठ तो है ही । पर्वत की कन्दरा में भी रहकर - बैठकर तुम पाप - चिन्तन करो, किसी के प्रति भीतर में घृणा के भाव का पोषण करो, वह भी संचित रहेगा, और कालान्तर में फिर से वह तुम्हारे पास आकर तुम्हें आघात करेगा, किसी-न-किसी दिन एक न एक प्रकार के दुःख के रूप में वह प्रबल वेग से तुम पर आक्रमण करेगा । यदि तुम अपने हृदय से ईर्ष्या या घृणा का भाव चारों ओर बाहर भेजो, तो वह चक्रवृद्धि व्याज सहित तुम पर आ गिरेगा। दुनिया की कोई भी ताकत उसे रोक न सकेगी। यदि तुम ने एक बार उस शक्ति को बाहर भेज दिया, तो फिर निश्चित जानो, तुम्हें उसका प्रतिघात सहन करना ही पड़ेगा। यह स्मरण रखने पर तुम कुकर्मों से बचे रह सकोगे २२ I 205 श्रीमद्भगवद्गीता को शंकराचार्य ने अद्वैतवाद की सिद्धि के लिए वेदान्तसूत्र, उपनिषद् के साथ-साथ प्रस्थानत्रयी में स्थान दिया । गीता, अध्याय १२ के श्लोक १३, १४, १५, १६, १७ आदि में स मे प्रियः' के योग्य सत्पुरुषों में सभी प्राणी द्वेषभावरहित, मित्र, करुणापूर्ण, स्वार्थ-रहित, निरहंकार, सुख-दुःख में एक रस, क्षमाशील, स्वयं में सन्तुष्ट, मन, इन्द्रियों और शरीर को वश में कर लेनेवाला, हर्ष, द्वेष, कामना, शोच से रहित तथा शुभाशुभ कर्म के फल को त्याग देनेवाला, मेरी भक्ति में लीन, शत्रु-मित्र में समभाव, मानापमान में समान, सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वों से अस्पृष्ट, निन्दा - स्तुति में तुल्यमति, शरीर की रक्षा के लिए घर की परवाह नहीं करनेवाला आदि गुणोंवाले पुरुष भगवान् के प्रिय होते । ये सभी गुण जैन अर्हत् आदि पंच परमेष्ठी भगवान् महावीर से प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते थे। इसी प्रकार अध्याय १३ के अधिकांश श्लोकों में वैसे सात्त्विक गुणों का कथन ही किया गया है, जो एक आदर्श जैन साधु में होने चाहिए । पुनः अध्याय १६ के आदि के कितने ही श्लोक सात्त्विक गुणों की गणना करते हैं, जो किसी आदर्श सात्त्विक व्यक्ति में होने चाहिए । अध्याय १८ में सात्त्विक कर्मों और सुखों की गिनती की गई है। ये सभी अहिंसा, संयम (आन्तरिक और बाह्य) और तप को अपने में लपेटकर चलते हैं, जो जैनधर्म के प्राण-स्वरूप हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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