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________________ अनेकान्तवाद और अहिंसा : एक शास्त्रीय परिशीलन 199 उनकी विचारधारा इतनी उदार थी कि वे सभी में सत्य का अंश मानते थे। वास्तव में सत्य बहुत बड़ा होता है और असत्य छोटा होता है। उन्होंने अपने विरोधी गोशाल के विषय में कहा, शायद यह भी सही हो सकता है। महावीर की अहिंसा बड़ी सूक्ष्म है। दे चींटी से बचकर इसलिए चलते हैं, कि उसके चलने में बाधा न आवे । मर जायगी तो हिंसा। यह तो बहुत बड़ी हिंसा हो जायगी। चींटी के चलने में बाधा आ गई, तो भी हिंसा हो जायगी। महावीर सम्पूर्ण जगत् के जड़-चेतन को चीव मानते थे। एक बार उनकी चादर झाड़ी से उलझ गयी। झाड़ी के फूल न गिर जायें और काँटे न टूट जायें। अतः चादर फाड़कर, उलझे भाग को फाड़कर छोड़ दिया । आधी अपनी देह पर रह गयी। फिर कहीं वह भी गिर गयी। महावीर को पता न चला और वे नंगे हो गये। सर्वप्रथम उन्होंने जीवन में अहिंसा को उतारा, अनुभव किया और फिर कहा 'अहिंसा परमधर्म है'। अपनी उपस्थिति दूसरे के सामने रखना हम हैं, यही हिंसा है, उनके अर्थ में। महावीर यदि एक शब्द में कहते कि अहिंसा क्या है, तो वे कहते-'आत्मज्ञान' । महावीर ने आत्मज्ञान पर बहुत बल दिया। वास्तव में अपने को भूलकर दूसरे को देखना ही 'हिंसा' है। जब व्यक्ति आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। महावीर ने कहा कि यदि अहिंसा फैल जाए, विस्तृत हो जाए तो समानता संभव हो सकती है। आज जो समाजवाद की बातें उठ रही हैं, वे तभी सम्भव है, जब अहिंसा फैल जाय। समाजवादी अहिंसा जानते नहीं, और समाजवाद की कल्पना करते हैं-समाजवाद की, लोकहित की, लोक कल्याण की बातें तभी की जा सकती हैं, जब अहिंसा फैल जाय। महावीर की अहिंसा स्वीकारात्मक है, निषेधात्मक नहीं। वह हिंसा का विपरीत भाव नहीं है, बल्कि हिंसा ही विपरीत भाव है अहिंसा की। अतः हम देखते हैं कि महावीर की अहिंसा अन्य सभी धर्मों, दर्शनों की अहिंसा से अलग है, विशेष है, श्रेष्ठ है और जीवन में उतारने में अधिक सुगम और व्यवहार्य है। इस अहिंसात्मक विवेचन की प्रस्तुति सर्वप्रथम 'आचारांगसूत्र' में ही की गई तथा यह स्थापना की गई कि हिंसा और ममत्व ही कर्मबन्धन के मुख्य कारण हैं। अतः कर्मबन्धन से मुक्त होने की अभिलाषा रखनेवाले मुमुक्षुओं को हिंसा और ममत्व से दूर रहना चाहिए। पृथ्वी, अप (पानी), तेजस, वायु, वनस्पति और त्रस में भी अव्यक्त चेतनावाली आत्माएँ हैं, यह सत्य सर्वप्रथम जैन धर्म ने ही जगत् के समक्ष रखा और अव्यक्त आत्माओं के प्रति भी अहिंसक रहने का न केवल उपदेश ही दिया, अपितु वैसा आचरण करके बतलाया। यह जैन धर्म की अहिंसा की लाक्षणिकता है। जो व्यक्ति इन सूक्ष्मों के प्रति अहिंसक रह सकता है, वह स्थूल जीवों के प्रति तो अहिंसक रहेगा ही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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