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________________ अनेकान्तवाद और अहिंसा : एक शास्त्रीय परिशीलन अहिंसा, संयम और तप ही महावीर का जीवन है। यदि उनके जीवन पर दृष्टिपात किया जाय तो उसे हम एक सपाट शून्य ही पाते हैं। उनके जीवन में कोई कहानी नहीं है। बुरे जीवन की ही कहानी होती है। अच्छे आदमी की जिन्दगी अगर सच में ही अच्छी है तो वह शून्य हो जाती है, उसमें कोई कहानी नहीं बचती, कोई कहानी नहीं बनती। यदि हम महावीर के जीवन में भी खोजें तो किस बात का पता है ? महावीर ने जीवन की घटनाओं का कोई महत्त्व नहीं दिया। महावीर की सम्पूर्ण जीवनधारा आत्मज्ञान से संलग्न है। महावीर का मत है कि व्यक्ति के चरित्र का एक भी पहलू ठीक हो जाय तो शेष अपने-आप ठीक होने लगता है। एक-एक व्यक्ति अगर ठीक होने लगे तो समूचा समाज ठीक हो जायगा, स्वयं सही हो जायगा । धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है 1: महावीर की दृष्टि में धर्म का अर्थ है 'जो मैं हूँ - उसी में जीना, इससे जरा भी विचलित नहीं होना धर्म है । जब भी व्यक्ति उस सीमा से निकलने का प्रयास करता है, दुःखी होता है । स्वयं में होना ही मुक्ति है, श्रेयस्कर है। महावीर कहते नहीं, करते नहीं, अनुभव करते हैं । वास्तव में स्वयं के अनुभव से धर्म जाना जा सकता है । जो आदमी आगे ही देखता चला जाता है, वह धार्मिक नहीं हो सकता । 197 वैदिक विचारक कहते हैं 'परीक्षाप्रिया हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः' अर्थात् देव (देवता-विद्वान्) वर्तमान से सन्तुष्ट नहीं होकर भविष्य का निर्माण किया करते थे, उसके लिए किये जा रहे प्रयत्न को विघ्नों से सुरक्षित रखने का प्रयास करते थे । क्या यह वैदिक विचार के प्रतिक्रियारूप विचार नहीं था ? महावीर घर से जाने लगे तो जो लोग महावीर के पीछे गाँव के बाहर आये, वे उन्हें समझाते रहे कि इतना सुख छोड़कर कहाँ जा रहे हो, पागल हो गये हो । पर महावीर अपने में लीन होकर चले गये। महावीर की दृष्टि में अपने (संसार) से बाहर जाना ही नरक है। दूसरे की तरह देखना ही दुःख है । अपने अनुभव से जो सुख मिले, वही सुख है । महावीर ने अनुभव किया कि वैराग्य ही सुख है और आनन्द की खोज में चले गये । साथ में आये लोगों के द्वारा प्रदर्शित सुख को सुख नहीं समझा; क्योंकि महावीर की धारणा थी, दूसरी तरफ जाना ही नरक है। महावीर ने कोई सीमा नहीं बनाई कि यह धर्म है, यह अधर्म है। उन्होंने अपने स्वभाव (धर्म) में ठहर जाने को ही धर्म कहा, 'वत्थु-सहावो धम्मो' अपने भीतर दौड़ना ही स्वर्ग है, मंगलमय है । व्यक्ति यदि अधर्म छोड़ दे, तो धर्म स्वयं आ जाता है। यदि द्वेष को छोड़ना है, राग को छोड़ना होगा । व्यक्ति में यदि अहिंसा, संयम और तप आ जाय, तभी स्वयं में ठहर सकता है, नहीं तो वह दूसरी तरफ भागेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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