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________________ अनेकान्तवाद और अहिंसा : एक शास्त्रीय परिशीलन को नय कहते हैं । धर्मान्तर का निराकरण करके एक ही धर्म को स्वीकार करना दुर्नय है। प्रसिद्ध जैन विद्वान् डॉ. हीरालाल जैन ने 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान' में 'अनेकान्त' की व्याख्या इस प्रकार की है : 195 न्यायदर्शन में प्रमाण चार प्रकार का माना गया है— प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । ये भेद उत्तरकालीन जैनन्याय में भी स्वीकार किये गये हैं, किन्तु इनका जैन दर्शन के पाँच ज्ञानों का उल्लेख इस प्रकार हुआ है— मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान और केवलज्ञान । प्रमाण और नय-पदार्थों के ज्ञान की उत्पत्ति दो प्रकार से होती है— प्रमाणों से और नयों से: 'प्रमाणनयैरधिगम । ३ ऊपर जिन पाँच प्रकार के ज्ञानों का वर्णन किया गया है, वह सब प्रमाणों की अपेक्षा से ही । इन प्रमाणभूत ज्ञानों के द्वारा द्रव्यों का उनके समग्र रूप में बोध होता है। किन्तु प्रत्येक पदार्थ अपनी एकात्मक सत्ता रखता हुआ भी अनन्तगुणात्मक और अनन्तपर्यायात्मक हुआ करता है । इन अनन्त गुण-पर्यायों में से व्यवहार में प्रायः किसी एक विशेष गुणधर्म के उल्लेख की आवश्यकता होती है, जब हम कहते हैं कि उस मोटी पुस्तक को ले आओ, तो इससे हमारा काम चल जाता है, और हमारी अभीष्ट पुस्तक हमारे सम्मुख आ जाती है। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उस पुस्तक में मोटाई के अतिरिक्त अन्य कोई गुण धर्म नहीं है । अतएव ज्ञान की दृष्टि से यह सावधानी रखने की आवश्यकता है कि हमारा वचनालाप, जिसके द्वारा हम दूसरों को ज्ञान प्रदान करते हैं, ऐसा न हो कि जिससे दूसरे के हृदय में वस्तु की अनेकगुणात्मकता के स्थान पर एकान्तिकता की छाप बैठ जाय। इसलिए एकान्त को मिथ्यात्व कहा गया है, और सिद्धान्त के प्रतिपादन में ऐसी वचन - शैली के उपयोग का प्रतिपादन किया गया है, जिससे वक्ता का एक गुणोल्लेखात्मक अभिप्राय और साथ ही यह भी स्पष्ट बना रहे कि वह गुण अन्यगुणसापेक्ष है। जैनदर्शन में यही विचार और वचन - शैली अनेकान्त वा स्याद्वाद कहलाती है । वक्ता के अभिप्रायानुसार एक ही वस्तु है भी कही जा सकती है, और नहीं भी । दोनों अभिप्रायों के मेल से 'हाँ-ना' एक मिश्रित वचन भंग भी हो सकता है; और इसी कारण उसे 'अवक्तव्य' भी कह सकते हैं। वहाँ यह भी कहा जा सकता है कि प्रस्तुत वस्तु-स्वरूप है भी, और फिर भी अवक्तव्य है; नहीं है, और फिर भी अवक्तव्य है; अथवा है भी नहीं भी है, और फिर भी अवक्तव्य है इन्हीं सात सम्भावनात्मक विचारों के अनुसार सात प्रमाण-भंगियाँ मानी गई हैं । वे इस प्रकार रखी 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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