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________________ 192 Vaishali Institute Research Bulletin No.8 आवश्यक है। इस दर्शन का मूल मन्त्र ‘स्यात् अस्ति', 'स्यात् नास्ति' (अर्थात्त् वस्तु की सत्ता हो भी सकती है और नहीं भी) इस सूत्रवाक्य से प्रकट है। अनेकान्त के बिना वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो उसमें परिणमन नहीं हो सकता और परिणमन के अभाव में क्रिया-कारकभाव नहीं बन सकता। यदि सर्वथा असत् है, तो उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती और यदि सर्वथा सत् है, तो उसका कभी नाश नहीं हो सकता। अनेकान्त की दृष्टि से दीपक के बुझ जाने पर भी उसका नाश नहीं होता, किन्तु वह अन्धकार रूप पर्याय को धारण कर अपना अस्तित्व रखता है। __इसमें यह शंका की जा सकती है कि अनेकान्तवाद संशय का हेतु है; क्योंकि एक ही आधार में विरोधी धर्मों का रहना सम्भव नहीं है। इसका समाधान यह होगा कि सामान्य धर्म का स्मरण होने से संशय होता है। जैसे धुंधली रात में सामने किसी ऊँची वस्तु का प्रत्यक्ष होने पर यह सन्देह होता है कि यह दूँठ है, या पुरुष । यहाँ ढूँठ और पुरुष में पाये जानेवाले सामान्य धर्म ऊँचाई का प्रत्यक्ष तो होता है, किन्तु दोनों के विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष नहीं होता, उसका स्मरण हो जाने पर यह संशय होता है कि यह दूंठ है या पुरुष । किन्तु अनेकान्त में ऐसा नहीं है। वहाँ तो प्रत्येक धर्म की सत्ता की अपेक्षा सत् और पर-रूप से असत् है आदि पक्षों का भी बोध होता है। इसमें यह संशय होता है कि यदि एक ही वस्तु को सत्-असत् दोनों माने तो इसे ऐसा माननेवाली क्या युक्तियाँ होंगी। यदि इसके लिए युक्तियाँ हैं, तो एक ही युक्ति से एक वस्तु से 'सत्' तथा इसके विपरीत दूसरी से 'असत्' सिद्ध करने से सुननेवाले को सन्देह उत्पन्न होता है। इसका समाधान यों किया जा सकता है कि यदि 'सत-असत्' आदि में विरोध हो, तो संशय होगा; किन्तु अपेक्षा-भेद से माने गये सत्-असत् आदि धर्मों में कोई विरोध न होने से संशय नहीं है। जैसे पिता, पुत्र आदि सम्बन्ध-बहुत्व का एक ही देवदत्त के साथ कोई विरोध नहीं है। उसी प्रकार एक ही वस्तु में अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों में कोई विरोध नहीं हो सकता। एक ही देवदत्त किसी का पुत्र, किसी का पिता, किसी का भाई, किसी का साला, किसी का पति, किसी का गुरु, किसी का शिष्य आदि अनेक सम्बन्धों का निर्वाहक होता है, और उन सम्बन्धों में कोई विरोध नहीं है। ___जिस प्रकार वस्तु के ‘स्वरूप' से अस्तित्व है, उसी प्रकार 'पररूप' से अस्तित्व न हो जाय, इसलिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार द्रव्य स्वरूप से नित्य है, उसी प्रकार वह पर्यायरूप से भी नित्य न हो जाए, इसलिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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