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________________ 166 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 करना दोनों जैन दर्शन में लागू होता है । किन्तु पाणिनि के 'अस्ति - नास्ति दिष्टं मतिः' के अनुसार जैन दर्शन को हरगिज नास्तिक नहीं कहा जा सकता; क्योंकि यह इन्द्रियातीत तथ्य, यानी परलोक की सत्ता को माननेवाला है। जैन दर्शन कर्ता-धर्ता हर्ता रूपी ईश्वर को तो स्वीकार नहीं करता है, लेकिन इसके अनुसार प्रत्येक जीव अपनी सृष्टि का ही कर्ता है। तात्त्विक दृष्टि से प्रत्येक जीव में ईश्वर भाव है, जो मुक्ति के समय प्रकट होता है। योगशास्त्र सम्मत ईश्वर भी मात्र उपास्य है, कर्ता- संहर्ता नहीं है । आस्तिकता को यदि विश्व की शाश्वत नैतिक व्यवस्था के रूप में लिया जाय, तो जैनदर्शन की आस्तिकता पर कोई उँगली नहीं उठा सकता; क्योंकि इस शाश्वत नैतिक व्यवस्था में इसे दृढ़ विश्वास है । जैनदर्शन में इस जगत् को अनादि माना गया है। अनन्त सत्ता अनादि काल से अनन्तकाल तक क्षण-क्षण विपरिवर्तमान होकर अपनी मूलधारा में प्रवाहित होता है; क्योंकि उसके पश्चात् संयोग एवं वियोग से यह सृष्टिचक्र स्वयं संचालित है । किसी एक बुद्धिमान् ने बैठकर असंख्य कार्यकारण भाव और अनन्त स्वरूपों की कल्पना की हो और वह अपनी इच्छा से जगत् का नियन्त्रण करता तो हो, यह वस्तुःस्थिति के प्रतिकूल तो है ही, अनुभवगम्य भी नहीं है । विश्व अपने पारस्परिक कार्यकारणभावों से स्वयं सुव्यवस्थित और सुनिश्चित है । आगम, जैन दार्शनिक वाङ्मय के विकास क्रम को चार युगों में विभक्त किया गया हैअनेकान्त-स्थापना, प्रमाणशास्त्र - व्यवस्था एवं नवीन न्याययुग । युगों के लक्षण नाम से ही सुस्पष्ट हैं । काल मर्यादा का निर्धारण इस समय हमारा अभीष्ट नहीं है, यों इसमें मतभेद भी हैं । जैनतत्त्व - विचार की प्राचीनता में सन्देह तो नहीं ही है, इसकी स्वतन्त्रता भी इस बात से सिद्ध है कि जब उपनिषदों में अन्य शास्त्रों के बीज मिलते हैं, लेकिन जैनतत्त्व के विचार के बीज नहीं मिलते। इतना ही नहीं, भगवान् महावीर-प्रतिपादित आगमों में जो कर्मविचार है, मार्गणा और गुणस्थान, जीवों की गति एवं अगति, लोक-व्यवस्था एवं रचना, जड़-परमाणु पुगलों की वर्गणा और पुद्गल-स्कन्ध, छह द्रव्य एवं नव तत्त्व का जो व्यवस्थित विचार है, उन सबको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि जैनतत्त्व - विचारधारा भगवान् महावीर से भी पूर्व कई पीढ़ियों की अध्यात्मोन्मुख सारस्वत साधना का प्रतिफल है और इस धारा का उपनिषद् - प्रतिपादित अनेक मतों से पार्थक्य है, अतः इसका स्वातन्त्र्य स्वयंसिद्ध है । जैन दर्शन को अनेकान्तवाद भगवान् महावीर की विशेष देन है। इसी के बाद होनेवाले जैन दार्शनिकों जैतत्त्व - विचार को ही अनेकान्तवाद के नाम से प्रतिपादित करते हुए भगवान् महावीर को उसका उपदेशक बताया। यों, विचार के विकासक्रम और पुरातन इतिहास के चिन्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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