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________________ 128 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 का कारण होता है। कारण से उत्पन्न कार्य न तो कारण से भिन्न होता है, न अभिन्न ही। अतः कोई भी वस्तु न तो शाश्वत है और न उसका नितान्त उच्छेद ही होता है । बौद्ध चिन्तनधारा का मूल स्रोत है अशाश्वततानुच्छेदवाद । कार्य के मूल में कारण तो रहता ही है, पर कार्य तो कारण का परिवर्तित रूप है। कोई भी कर्म कर्ता की अपेक्षा से और अन्य अनुकूल परिस्थितियों के सहयोग से सम्पन्न होता है। कर्म के लिए वैसे कर्ता की अपेक्षा होती है। कर्ता को भी कर्म की अपेक्षा होती है। दोनों को बिना सापेक्ष माने सिद्धि सम्भव नहीं है । नागार्जुन-सापेक्षता, सकारणता और परिवर्तन का अटूट नियम ही प्रतीत्य की समुत्पाद है। शून्यता कोई दृष्टि नहीं, अपितु कसौटी है, जिसपर विभिन्न दृष्टिकोणों का मूल्यांकन किया जाता है । वस्तुतः शून्यता एक प्रकार का तराजू है, जिस पर विभिन्न विचारों की सत्यता को हम तौलते हैं, परखते हैं। शून्यता के सहारे ही हम इस तथ्य को हृदयंगम कर सकते हैं कि प्रत्येक वस्तु या घटना के मूल में कोई निश्चित कारण होता है। कोई भी वस्तु आदिकाल से ही उत्पन्न होकर नहीं आता है, अपितु विभिन्न परिस्थितियों से उसका निर्माण होता है। संसार में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है, जैसे दीये की लौ में । जगत् के पाँचों स्कन्ध दीये की लौ की तरह प्रतिक्षण बदल रहे हैं। विचार कर गहराई से देखें तो न कोई अन्त है, न कहीं आरम्भ, जैसे वृत्त आकार बिन्दुओं से बनता है, प्रत्येक बिन्दु अपने अगलेवाले की अपेक्षा सान्त है और पिछलेवाले की अपेक्षा अनन्त । उसी तरह परिवर्तन का यह चक्र एक दूसरे की अपेक्षा से सान्त भी है और अनन्त भी है।३९ प्रतीत्यसमुत्पाद रूपी शून्यवाद के सहारे ही चार आर्य सत्यों की प्रतिष्ठा सम्भव है। प्रत्येक पदार्थ प्रतीत्यसमुत्पाद होने के कारण सापेक्ष सत् है, निरपेक्ष नहीं। निरपेक्ष सत्ता न मानने का नाम ही शून्यवाद है। इसीलिए यह स्याद्वाद या अनेकान्तवाद का समानान्तर है। प्रतीत्यसमुत्पाद या शून्यता के सिद्धान्त के सहारे जीवन और जगत् को समझा जा सकता है, इससे सत्य की सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव है। वही निर्वाण की स्थिति है। समाहार: . जैनचिन्तन में अनेकान्तवाद भी इसी प्रकार का सर्वथा तात्त्विक विचारदर्शन है। दर्शन का उद्देश्य है वस्तु का यथार्थ बोध । इसी बोध के द्वारा मनुष्य को मुक्ति या कैवल्य-पद प्राप्त होता है। महावीर वर्द्धमान द्वारा प्रतिपादित दर्शन और धर्म में बोध की गरिमा के मूल्यांकन का प्रतिमान (कसौटी) है अनेकान्तवाद। जैन दार्शनिकों के अनुसार अहिंसा धर्म और अनेकान्त जीवन-जगत् के प्रति चरम सत्य दृष्टि । सत्य के प्रति समर्पित दृष्टि ही ज्ञान है। ज्ञान तभी सार्थक है, जब वह अज्ञान को दूर कर प्रकाश की ओर मनुष्य को अग्रसर करे। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन द्वारा ही सम्यक् चारित्र्य से मनुष्य सम्पन्न हो पाता है। पहले किसी वस्तु का या लक्ष्य का सम्यक् ज्ञान हो, उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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