SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर और बुद्ध के जीवन और उनकी चिन्तन-दृष्टि 123 विचारों की भाषा और अभिव्यक्ति : महावीर वर्द्धमान और गौतम बुद्ध के निर्वाण-सम्बन्धी चिन्तन में ही समानता के दर्शन नहीं होते, अपितु उस युग के विचार और कर्मभूमि को बहुत सारे प्रश्न प्रभावित कर रहे थे, उनके प्रति समाधान की दृष्टि में साम्य ही नहीं, तादात्म्य भी बड़ी गहराई तक दिखाई देता है। यहाँतक कि उन विचारों की भाषा और उनकी अभिव्यक्ति-प्रणाली में अद्भुत एकात्मता दिखाई देती है। पण्डित कौन है? ब्राह्मण कौन है? मूर्ख कौन है? देहानित्यत्व क्या है? तुला क्या है? संयम क्या है? अहिंसा क्या है? विजेता कौन है? आदि विचार-बिन्दुओं के सन्दर्भ जो समाधान प्रस्तुत किये गये हैं, उनमें कितना स्पष्ट साम्य है। बस एक की भाषा प्राकृत है, तो दूसरे की पाली। यह तो दोनों ही धर्म-प्रवर्तकों की स्पष्ट मान्यता थी, उनके उपदेश उस समय प्रचलित शिष्ट भाषा संस्कृत में न हो, अपितु लोकभाषा में हो। लोकभाषा का रूप स्थानभेद और कालभेद से बदलता रहता है। दोनों के कर्मक्षेत्र भी प्रायः एक-से रहे हैं, इस लिए दोनों के उपदेशों की भाषाएँ लोकभाषाएँ हैं, जो एक दूसरे की पार्श्ववर्ती हैं। यहाँ यह उल्लेख करना सर्वथा उचित होगा कि महावीर और बुद्ध की वाणियों की जो भाषा हमें उपलब्ध है, वह उसका लोकप्रचलित प्रकृत रूप तो कदापि नहीं है, उन लोकभाषाओं का मागधी और अर्धमागधी का परिष्कृत साहित्यिक रूप है, जिनका सम्पादन-संकलन मूल उपदेशों के प्रवर्तन के सदियों बाद हुआ। श्रमण और समण : श्रमण और समण ये शब्द दोनों ही धर्मों में बहुत प्रचलित हैं। उन शब्दों का आन्तर रस है—जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्दमनीय वृत्तियों का, तृष्णा का शमन कर ले, वह श्रमण या शमन होता है। इस सन्दर्भ में दोनों ने ही समान भाव से विचार प्रकट किये हैं कि अक्रोध से क्रोध को जीते, सत्य से असत्य को जीते, असाधुता को साधुता से जीते, कृपणता को दानशीलता से जीते : उवसमेण हने कोहं मानं मद्दवया जिने। मामनज्जवभावेण लोभं सतोषओ जिने ।।२४ साधक शान्ति से क्रोध का हनन करे, विनम्रता से मान को जीते, सरलता से मान का नाश करे और लोभ पर संतोष से विजय प्राप्त करे । इससे एकदम मिलती-जुलती भावना बुद्धवाणी में यों प्रस्फुटित हुई है : अक्कोधेन जिने क्रोधं असाधु साधुना जिने। जिने कदरियं दानेन, सच्चेन अलीकवादिनं ॥२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy